Sunday, May 8, 2011

माँ तुम ममता......


 
माँ तुम ममता,स्नेह,दया और प्रेममूर्ति हो।
शुष्क उपेक्षित इस जीवन में तुम नेहमूर्ति हो।
अंधकारमय इस कूपभवन में तुम दीपमूर्ति हो। 
पंचतत्व के इस शरीर में तुम प्राणमूर्ति हो। 
 
दीव्यमयी हो,ज्योति मयी हो,तेजमयी हो।
हूँ अपूर्ण मैं तुम प्रसाद व पूर्णमयी हो।
तुम बिन जगत अस्त व्यस्त तुम श्रृँगारमयी हो।
जगतपुरुष है कृत्य और तुम परिणाम मयी हो। 
 
माँ तेरा यह अचल स्नेह गंगा बन बहता।
तेरी करुणा वात्सल्य क्षीर आँचल में मिलता।
तेरा नेह दुलार शब्द है मेरा  लोरीगीत बनता।
तेरी स्मृति तेरा चिंतन ही मेरी पूजा बनता।
 
हो अस्तित्व , प्राण ,ध्यान , चिंतन तुम मेरी।
माँ तुम जननी,पालनकर्तृ और मोक्षकर मेरी।
तुम संस्कार,नाम,जीवन-ज्ञान-दीप हो मेरी।
तुम त्रिभुवनस्वरूपिणि,सकल अस्तित्व हो मेरी।
 
जीवनपथ है तापमयी चलना अति दुष्कर हो।
माँ यदि तेरा स्नेहाँचल मेरे शीश पर न हो।
तुम मां करुणामयी, प्रेम-सागर-मयी हो।
मेरे उद्भव की कारण, नेह-क्षेम-कुशलमयी हो।

Wednesday, May 4, 2011

.......क्षण का उन्माद।



राग है या द्वेष है?
लोभ है या मोह है?
है ये मद कि मात्सर्य है?
धर्म है कि अर्थ है यह?
काम है वा मोक्ष है?
कौन है यह?
 
अपरिचितो सा,
प्रविष्ट करता मन महल में,
प्रत्यंचा के तीर जैसा,
द्रुत पवन के वेग जैसा, 
आधिपत्य संपूर्ण करता,
मष्तिस्क और विवेक पर।
 
हो रहे क्यों उन पलों में
चिन्तनों के हर पटल,
शान्त,मौन व निर्वाद,
असहाय और कुंठित,
संस्कार होते सब पराजित,
थके,स्तब्ध व प्रभावित,
उन पलों में।
 
कौन है यह?
सअहं अतिकार करता ,
चेतना जो शून्य करता,
यह एक क्षण का उन्माद!

Tuesday, May 3, 2011

खरगोश के संग खेल-दौड, शिकारी संग मिल शिकार................


यह खेल भी अजूबा है,
बडा ही रोमांच डूबा है,
खरगोश जब छोटा था
नटखट बडा प्यारा था,
मासूम था।
शिकारी के ही छत्रछाया में,
उसके अपने ही लान में,
इसी शिकारी कुत्ते के साथ
धमाचौकडी खेलता था।
उछलकूद करता था
कभी कुलाचें मारता था
हवा-पलटी करता था।
 
शिकारी भी
अपने इस पालतू खरगोश
और पालतू शिकारी कुत्ता,
दोनों की इस धमाचौकडी पर
खूब आनंद लेता था
फूला न समाता था।
उन्हें पुचकारता था
एक को गाजर 
तो दूसरे को बोटी
बडे चाव से खिलाता था।
 
खरगोश अब ढीठ,
बहुत ढीठ हो गया था।
शिकारी कुत्ते के साथ खेलते-खेलते
अब खुद को भी 
शिकारी बडा समझता था।
बडा ही दबंग हो गया था।
पूरा हुडदबंग। 
 
हद  तो तब हो गयी
जब एक दिन,
नाइन इलेवेन के दिन,
वह मालिक शिकारी
की थाली में रखे गाजर
पर झपट्टा मार दिया।
पालने-पोसने वाले मालिक का ही
फीस्ट खराब कर दिया।
 
शिकारी मालिक को 
यह नागवार गुजरा।
और खरगोश पर वह
बहुत बुरी तरह विफरा।
उसने इस गुस्ताख को दबोचने के लिए
शिकारी कुत्ते को ललकारा,
ब्लडी खरगोश को मारने  के लिए 
खुद भी बंदूक लिये हुँकारा।
 
कुत्ता तो कुत्ती चीज होती है।
दोस्ती तो ठीक है मगर
उसे बोटी भी तो खानी होती है।
सो मालिक के हुकुम की खातिर,
अपनी बोटी इंतजाम की खातिर,
और साथ में पुराने दोस्त
खरगोश से दोस्ती के बहाने की खातिर,
वह एक कुत्ता खेल खेलने लगा।
 
मालिक के सामने भौकता था,
कि शिकार का मुस्तैदी से पीछा कर रहा है।
उधर दोस्त को 
होशियार भी कर देता था कि 
शिकारी किधर से गोली चलाने वाला है।
तो कुत्ता गजब का कुत्तापन दिखा रहा था।
एक तरफ खरगोश के साथ
खेलदौड कर रहा था
तो द्सरी ओर शिकारी के साथ
नूरा शिकार भी कर रहा था।
 
जब आखिर खरगोश
शिकारी की गोली से
ढेर हो गया है।
खरगोश का खेल
खत्म हो गया है।
पर कुत्ते का कुत्तापन का खेल
अब भी जारी है।

कुत्ता शिकारी की टाँगों के पास
खडा है दुम हिलाते,
वफादार बना सा दिखता।
मगर आँखों में लालच
और उम्मीद की चमक लिये कि
मालिक इस शिकार का इनाम देगा।
दो चार बोटी खाने को फेंक देगा।
कुत्ता गजब के कुत्तेपन का खेल
खेल रहा है
शिकारी को अब भी लगता है कि
कुत्ता तो वफादार है,
और उसके शिकार में
बराबर मदद कर रहा है।

Monday, May 2, 2011

...लोकतंत्र सी आत्मा को।


 
राजनीतिक इंद्रियाँ जो,
हुईं अनियंत्रित प्रबल।
क्यों कोसते हो तुम निरर्थक,
लोकतंत्र सी आत्मा को।1
 
आत्मा तो अनादि है,
अजर अमर अप्रमेय है।
अदग्ध अक्षय अतिक्त है
अदृश्य अजन्म अज्ञेय है।2
 
लोकतंत्र जन आत्मा है,
लोकतत्र जन चेतना है.
लोकतंत्र समाधान बनता
जो भी जन की वेदना है।3
 
तरु-जडे ही जब विषैली,
पुष्प-फल को दोष कैसा?
स्वयं जब क्षलमयी जीवन
दूसरे से भरोष कैसा? 4
 
स्वयं मिथ्याचार पर दूजा
सची हो , यह बडा पाखंड है।
सुविधानुसार नियमविग्रह
यह बडा ही प्रवंच है।5
 
सत्य आंच रहित  होता
निडर निस्पृह निभय होता
आचरण में हरिश्चंद होता
आदर्श में यह राम होता।6
 
ज्ञान में यह बुद्ध होता
महावीर जैसा शुद्ध होता
नीति में करमचंद होता
प्रीति में नानकचंद होता।7
 
पर-उपदेश देना बाद में
प्रथम स्वयं को निर्देश दो।
घृणा से बचकर रहो तुम
अब प्रेम का संदेश दो।8

Sunday, May 1, 2011

.......क्यों न रस्ता पूछ लेते!


राह से भटके पथिक तुम,
गंतव्य से अनजान से तुम,
संकोच तेरा निष्प्रयोजन,
स्वागत है तेरा पथप्रयन,
नयन भरके,साथ चलते
सहपथिक को देख लेते।
क्यों न रस्ता पूछ लेते!
 
 
 
छाँव देते वृक्ष साक्षी-
नीड में आवास पक्षी,
भर अंजुली फलदान देते,
हृदय मन से तृप्त भक्षी  
मार्गदर्शक बन खडे ये,
परमार्थ- पथ संकेत देते।
क्यों न रस्ता .............।
 
राह में सौन्दर्य बनकर,
उल्लसित हो पुष्प खिलते,
तितलियाँ रसपान करतीं,
भ्रमर गुंजन गान करते।
सप्रेम पथ सौन्दर्य पथ ,
रस-प्रेम के संगम बनाते।
क्यों न रस्ता .............।
 
 
 
सूर्य  भी हैं साथ चलते,
नवदिवस भी साथ लाते।
जब निशा अवरोह लाती,
चाँद तारे पथ दिखाते।
यात्रा निरंतर अनंत यह,
नियति सबकी राह चलते।
क्यों न रस्ता .............!
देखा नहीं यह सरित बहते?
सुनते कभी(उन्हें) दुखराग कहते?
स्निग्ध शांत प्रवाहमय ये,
शीतलपवन की राह भरते।
पानकर शीतलमधुर जल,
क्यों न मन विश्रांत करते?
क्यों न रस्ता .............!
 
 
 
संग पवन क्यों भूलते तुम?
संग गगन क्यों भूलते तुम?
जलद भी जलछत्र साधे,
धूप-छाँव हैं खेलते ।
साथ तेरे सहपथिक सब,
स्वागत-करतल-वाद करते
क्यों न रस्ता पूछ लेते!