Friday, September 30, 2011

-जानत तुम्हहि तुम्हहि होइ जायी.

अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध व उन्नीसवी शताब्दी के प्रथम दो दशकों में तैलंग महाराज काशी में  इतने प्रसिद्ध थे कि काशी व तेलंग महाराज जी एक दूसरे के पर्याय स्वरूप जाने जाते थे,  जैसे कि आदिकाल से ही काशी नगरी व बाबा विश्वनाथ एक दूसरे के पर्याय हैं।

कहते हैं कि तैलंग महाराज छः फुट से भी ज्यादा कद के, तीन कुंतल से भी ज्यादा वज़न वाले लम्बे-चौड़े भीमकाय शरीर के थे। वे काशी में ज्यादातर दसाश्वमेध घाट के आस-पास, और विश्वनाथ मंदिर की गलियों में प्रायः शांत,गंभीर, ध्यानस्थ से गज की चाल से चलते दिख जाते,किंतु वे न तो किसी की और देखते, न बात करते यहाँ तक कि रास्ते में जो लोग उन्हे प्रणाम भी करते तो उसपर ध्यान न देते और अपने परिवेश की हर घटना व व्यक्ति के प्रति उपेक्षित भाव लिये अपने में ही ध्यानमग्न रहते ।

रामकृष्ण परमहंस जी उनके प्रिय शिष्य व सखा थे, वे जब भी काशी आते ,दोनों साथ रहते, समाधिस्थ हो जाते।उनकी साथ-साथ कई दिनों तक लम्बी समाधि व ध्यान-योग क्रिया चलती।

काशी की परंपरा के मुताबिक तड़के भोर गंगा जी में दसाश्वमेध घाट पर डुबकी लगाने लोग पहुँचते तो तैलंग महाराज गंगा की जलधारा के ऊपर पद्मासन में ध्यानस्थ बैठे दिखते। सुनने में तो यह आश्चर्यजनक लगता है पर प्रतिदिन ऐसे चमत्कार को सामने रोज घटते देख लोग इसके अभ्यस्त से थे और उन्हे इसमें कोई आश्चर्य न दिखता और वे इसे सामान्य रुप से ही देखते ।

जैसे ही प्रभात का उजाला बढ़ जाता और घाट पर स्नान करने वालों की संख्या बढ़ती और चहल-पहल हो जाती, वे खामोशी से अपनी समाधि तोड़ जल के ऊपर ही चलते नदी से बाहर निकल घाट की  ओर बाहर आ जाते और घाट की सीढ़ियों पर एक किनारे , आवागमन के रास्ते से किनारे , शांत व ध्यानस्थ बैठ जाते ।

उनके निय़मित भक्त टोकरों-परातों में फल,बाल्टी भर दही, अन्य खाद्य सामग्री उनके पैरों के समीप भेंट कर, उनके ध्यान में कोई बाधा किये, खामोशी से प्रणाम करते निकल जाते। वे जब अपनी ध्यान निद्रा से जगते, वही घाट की सीढ़ी पर ही बैठे-बैठे भक्तों के द्वारा लाये गये फल के टोकरों,दही की बाल्टी, या अन्य जो भी खाद्य पदार्थ वहाँ रखा रहता, सब एक-एक कर उदरस्थ कर जाते।

फिर लम्बी डकार और अँगड़ाई लेते वहाँ से उठते, आस-पास के परिवेश से पूर्णतया निर्लिप्त, बिना किसी पर कोई दृष्टिपात किये , अपनी गज सी निराली पर शांत चाल से विश्वनाथ मंदिर की गलियों में कहाँ विलीन हो जाते, कि किसी को दिन भर आहट भी न देते। फिर तो अगले दिन भोर व प्रभात बेला में ही उस महान विभूति का दर्शन होता। यह उनके व काशी-वासियों के जीवन के नित्य कर्म व दिन-चर्या का नियमित अंग था।


तैलंग महाराज अपने में ही ध्यानमग्न, न किसी से कुछ बोलते न किसी की ओर देखते।कोई समीप आकर प्रणाम करने या उन्हे  छूने का प्रयाश करता तो उसे वे आग्नेय दृष्टि से देखते व झिड़क कर भगा देते, पर यदि कोई दीन-दुखी-बीमार-असहाय अपनी तकलीफ का अनुरोघ विलाप करते उनके चरणों में लेट जाता, तो चुपचाप करुण भाव से उसे देखते, लगता कि उसके विलाप को ध्यान से दीनबंधु की तरह सुन रहे हैं, यदि किसी का परम सौभाग्य होता तो वे चुपचाप अपने आजानुबाहु को बढ़ा इस दीन व विलाप करते व्यक्ति के सिर को स्पर्श मात्र कर देते। कहते है कि मात्र उनके स्पर्श से ही कई बार कितनों की गम्भीर व असाध्य बीमारी, भारी दुख,संकट,पीडा , विकलांगता चमत्कारिक रूप से ठीक हो जाती।


किंतु जैसा प्रायः होता है कि साधु और सरल स्वभाव के व्यक्ति, जिनको लोग भगवान कि तरह पूजते,उनमें आस्था व सम्मान रखते हैं, उनके अनेकों ईर्ष्यालु व डाही विरोधी व शत्रु भी अनायाश हो जाते हैं। तो तैलंग महाराज में भी काशीवासियों की भगवान जैसी आस्था व उनकी चरम प्रसिद्धि के साथ-साथ वहाँ उनके कई विराधी और शत्रु भी थे।

इसी तरह के डाही व ईर्ष्यालु व्यक्तियों में वहाँ का एक सेठ भी था जो तैलंग महाराज के विरोधी व शत्रु गुट के समूह से सम्बन्ध रखता है। उस सेठ ने तैलंग महाराज जी को परेशान करने और उनके प्राण लेने की नीयत से एक कुचक्र रचा। उसे तैलंग महाराज के भोलेपन व सरलता का पूरा अनुभव व आभास था कि उन्हे कुछ भी खाने को दे दो, यहाँ तक कि जहर मिला भोजन या फल भी,तो वे उसे बस भोलेबाबा का प्रसाद समझ आँख मूँदे उदरस्थ कर जायेंगे। यही विश्वासकर उसने तेलंग महाराज के साथ भयानक व जानलेवा शरारत करने की योजना बनायी।

उस सेठ ने एक बाल्टी भरा कली चूना , जो देखने में ताजी जमी सफेद दही की तरह लग रहा था, घाट की सीढ़ियों पर ध्यानस्थ बैठे तेलंग महाराज जी के चरणों के समीप भेंट स्वरूप रख दिया। उसे इस बात का पूरा भान व विश्वास था कि बाबा जैसे ही अपनी ध्यान निद्रा से उठेंगे, वे अपने भुख्खड़ी स्वभाव के अनुरूप अपने  पास रखे सभी खाद्य पदार्थों को उदरस्थ कर जायेंगे।

इस इंतजार में कि बाबा जैसे ही बाल्टी भरा कली चूना , जमी हुई ताजी दही समझ गटकें, व फिर उस चूने की भयानक प्रतिक्रिया से, वे तड़पें, छटपटाये,उन्हे खून की उल्टियां हों, उनकी प्राण पर बन जाये। वह इस दृश्य का आनंद उठाने के लिये कुछ दूरी पर लोगों की निगाह बचाकर चुपचाप खड़ा होकर बेसब्री से बाबा के ध्यान-निद्रा से जगने की प्रतीक्षा करने लगा।

आखिर वही हुआ जो उस दुष्ट सेठ की योजना व अनुमान था। जैसे ही तेलंग महाराज अपनी ध्यान-निद्रा से उठे, अपने स्वभाव के अनुरूप अपने आस-पास रखे भोजन को तेजी से एक-एक कर उदरस्थ करना शुरू किये।फिर बारी आयी बाल्टी भरे कली चूने की, जो बिल्कुल जमे ताजा दही की तरह प्रतीत हो रहा था,जिसे बाबा ने उठाया और बाल्टी मुँह में लगाये एक साँस में ही हलक के नीचे उतारने लगे। सेठ की उत्सुकता का ठिकाना न था और वह तो इंतजार ही कर कहा था कि कब इस कली चूने की इनके उदर में प्रतिक्रिया हो और वे खून की उल्टियां करते हुये जमीन पर पड़े तड़पड़ना व छटपटाना शुरु कर दें।


पर यह क्या हुआ, जहाँ एक और बाबा शांतचित्त एक साँस में बाल्टी भरा कली चूना पिये जा रहे य़े, वहीं अचानक सेठ के पेट में ऐसा अनुभव हुआ मानों उसके उदर में आग लग गयी हो। और कुछ ही क्षणों में उसके पेट में भयंकर जलन व पीड़ा उठी जिससे वह  तड़पने , छटपटाने लगा, फिर उसे खून की उल्टियाँ शुऱू हो गयीं। उसे कुछ न सूझता बस हाय बाबा जान बचाइये कहते चीखते हुये जान बचाने की गुहार करने लगा। जहाँ आस-पास खड़े लोग ,उपस्थित  बाबा के भक्तगण, आश्चर्य से यह दृश्य देख रहे थे, वहीं तेलंग महाराज जी बाल्टी भर कली चूना उदरस्थ कर शांत भाव से व तृप्त व आस-पास की हो रही इस घटना से निर्लिप्त से अपने स्थान पर ही बैठे थे।

सेठ के लगातार चीखने-चिल्लाने और जान बचाने की गुहार पर उन्होने दृष्टि डाली। कुछ विचार करते अपने हाथ को शांति मुद्रा में उपर उठाया। सेठ भी पेट की ज्वाला से राहत महसूस करते वहीं मरणासन्न सा शांत होकर जमीन पर ढेर हो गया।बाबा संयत भाव से उठे और वहाँ खड़े अपने श्रदधालुओं पर दृष्टिपात करते व यह कहते विश्वनाथ मंदिर की गलियों की ओर प्रस्थान कर गये- अरे यह दुष्ट तो आज मेरा प्राण ही हर लिया होता यदि में इस सृष्टि के कण-कण और अणु-अणु में परमपिता प्रभु की उपस्थिति का विज्ञान व उसमें स्वयं को एकाकार व समाहित न कर लिया होता। इस नादान मूर्ख कपटी को मालूम ही नहीं कि मेरे लिये तो मेरा स्वयं का शरीर अथवा उसका शरीर या कोई अन्य का शरीर सब एक समान हैं,मैं और वह दोनों और सब का शरीर, सम्पूर्ण प्रकृति  ही इस प्रभु में समाहित हैं, और प्रभु भी  हम सबमें , हम सबके शरीर में, रोम-रोम में, कण-कण में, अणु-अणु में समाहित हैं।

सच है- जानत तुम्हहि , तुम्हहि होइ जाई।

Thursday, September 29, 2011

कब के बिछड़े हुए हम आज कहाँ आ के मिले


सहपाठी का सम्बन्ध भी अनूठा होता है,उनकी यादें अमिट और गहरी होती हैं,कितने भी साल क्यों न बीत गये हों जब साथ पढ़े थे और फिर समय के साथ बिछड़ गये किंतु मन में सहपाठी की स्मृति सदैव बनी होती है,समय के साथ यादों में थोड़ा धुँधलापन तो आ जाता है,नाम और चेहरे का तालमेल बैठाने में मस्तिष्क को थोड़ा श्रम तो करना पड़ता है, किंतु जैसे ही छोटी छोटी बातों की चर्चा शुरू होती हैं, कक्षा के अंदर या बाहर की खास शरारतें या छोटी बड़ी घटनायें,अध्यापकों से सम्बंधित खास बातें व उनके पढ़ाने के खास अंदाज, कक्षा के कुछ विशेष लोग और उनसे जुड़ी विशेष बातें और इवेंट्स,साथ बिताये और सेलिब्रेट किये सभी ग्रुप इवेंट्स और मौजमस्ती ,  इन सारी साझा बातों और घटनाओं की जैसे ही चर्चा शुरू होती है, तो समय के साथ यादों के दर्पण पर आया धुँधलापन समाप्त हो जाता है,और बातों ही बातों में वे साथ बिताये दिन और क्षण स्पष्ट व  साक्षात सामने आ जाते हैं, और कुछ समय के लिये तो हम बात करते करते उन्हीं दिनों में खो ही जाते हैं।

अपने प्राथमिक स्कूल से शुरू करके , मेरी शिक्षा के पिछले पड़ाव, IIMB में PG Managemnt की पढ़ाई, के बीच की शिक्षा यात्रा में कई स्कूल,कालेज,युनिवर्सीटी ,प्रशिक्षण संस्थानों में पढ़ने का सौभाग्य ईश्वर ने दिया- मिडिल स्कूल केकराही,हाईस्कूल और इंटरमीडिएट ओबरा इंटर कालेज,बी एस सी इलाहाबाद युनिवरसीटी,बी टेक मदन मोहन मालवीय इंजिनियरिंग कालेज गोरखपुर, एम टेक आई टी बी एच यू,, IRSEE प्रोबेसनरी ट्रेनिंग भारतीय रेल विद्युत इं संस्थान नासिक और रेलवे स्टाफ कॉलेज बड़ोदरा, PG management Public Policy , मैक्सवेल स्कूल, सिराक्यूज युनिवर्सीटी, यू एस ए ।

मेरे जीवन की इस शिक्षा यात्रा में जो भी जानने सीखने को मिला, उससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण रहा है लगभग हजारों की संख्या में महानुभावों के साथ नजदीकी परिचय,आत्मिक व मानसिक अंतरंगता व साहचर्य का मिला शुभ अवसर- जिनमें सहपाठियों के साथ ही शामिल हैं- गुरुजन, वरिष्ठ व कनिष्ठ सहपाठी गण, शिक्षणेतर कर्मचारीगण, जिनका भी हमारे  विद्यार्थी जीवन के सफल निर्वाह में कम योगदान नहीं रहा।

ये सभी महानुभाव हमारे जीवन में उतने ही महत्व रखते हैं जितने हमारे अपने परिवार के सदस्यगण।हमारा जीवन व इसका अस्तित्व इन विशेष महानुभावों के निरंतर अहसास व अनुभूति करते रहने के बिना अधूरा लगता है।

कितने ही साल क्यों न बीत गये हों,  जब हम कुछ समय साथ रहे और फिर एक नयी शिक्षा- यात्रा को लिये बिछड़ गये, पर जब भी अपने पुराने स्कूल या कॉलेज का कोई संदर्भ या प्रकरण आता है, मन अनायाश ही अपने सहपाठियों, व गुरुजनों के स्मरण व यादों में व्यस्त हो जाता है,अनेक उत्सुकताओं व प्रश्नों की शीतल बौछारें मन में सकृय हो जाती है- फलाँ अब कहाँ होगा,कैसा होगा,क्या कर रहा होगा,कैसा दिखता होगा जैसे अनेकों विचार मन में एकसाथ घुमड़ आते है, उनका खयाल आते ही मन को तो पंख ही लग जाते हैं।

कभी-कभी मन में कसक भी उठती कि फिर कभी उससे मुलाकात या बात होगी भी या नहीं, हाँ कितने ही अपनें पुराने यार जिनकी यादें अक्सर मन में तैरती रहतीं ,इस दुनिया की भीड़ में पता नहीं कहाँ गुम हो गया , कई सालों से उनकी कोई खोज-खबर नहीं मिली, और इसलिये उनके लिये जब-तब मन उदास और भारी हो जाता ।

किंतु पिछले कुछ वर्षों से इंटरनेट- सोसल नेटवर्क, विशेषकर फेसबुक, ने हमें अपने पुराने दोस्तों से कई वर्षों के बाद वापस जोड़ने,उनसे सम्पर्क में बने रहने में चमत्कारिक योगदान किया है, कहें तो कई वर्षों से बिछड़े पुराने दोस्तों से फिर से वापस मिलाने के लिये यह सोसल नेटवर्क हमारे लिये एक देवदूत बनकर आया।

हमारे कॉलेज के ज्यादातर सहपाठी तो विगत कुछ वर्षों से ई-मेल के माध्यम से वापस जुड़ गये थे,किंतु स्कूल के पुराने दोस्तों से कोई कनेक्सन नहीं बन पाया था-अब तो यह भी नहीं पता था कि अब कौन है भी कहाँ । फिर अचानक , कह सकते हैं पिछले दो-तीन साल से ही, इस सोसल नेटवर्क ने एक प्लेटफॉर्म दिया है, एक-एक कर पुराने बिछड़े स्कूल दोस्त आपस में जुड़ते जा रहे हैं,  अब एक सुखद अनुभूति होती है कि आज अपने ढेरों पुराने स्कूली दोस्त इस नेटवर्क प्लेटफॉर्म  में उपलब्ध हैं, हम सब अपने जीवन की इस अधेड़ अवस्था में भी,  बचपन के ही  उत्साह और उमंग के साथ एक दूसरे को आपस में जोड़ने मे निरंतर लगे हैं।

हर नये दिन जब कोई पुराना दोस्त,जिसकी पिछले कई सालों से कोई खोज-खबर नहीं थी,आज जब वह अचानक अपने फ्रेडलिस्ट में जुड़ा मिलता है तो मन की उमंग का कहना ही क्या!

जब अपने पुराने स्कूली दोस्त कई वर्षों के अंतराल के बाद वापस जिंदगी से जुड़ गये हैं, तो मेरा मन फिल्म लावारिस का अपना पसंदीदा गीत गुनगुना रहा है-

कब के बिछड़े हुये हम आज कहाँ आ के मिले।
जैसे शम्मा से कहीं लौ ये झिलमिला के मिले।।

फिर भी सच पूछिये तो अब भी मन थोड़ा सा उदास है- फ्रेंड लिस्ट में निरंतर पुराने दोस्तों के नाम बढ़ तो रहे हैं, पर अभी भी कुछ खास नाम हैं जिनको मन अब भी बेसब्री से तलाशता है। जब भी फेसबुक पर अगली बार लागिन होता हूँ, तो मन के कोने में एक उम्मीद और जिज्ञासा सी बनी रहती है कि उस खास नाम में से कोई एक भी फ्रेंडलिस्ट में आ जुड़ा हो या उसका कोई संदेश आया हो?

मन तो इंतजार में है,  कि उन खास दोस्तों से फिर से मुलाकात हो जाय। काश मेरे उन पुराने बिछड़े दोस्तों के मन में भी कोई यह दस्तक दे दे ,हमारी याद उन्हे भी आ जाय और मुझे  उनका संदेश मिले और हम फिर से जुड़ जायें।मैं अपने उन खास दोस्तों का नाम तो यहाँ नहीं लिख रहा हूँ , पर मन में एक उम्मीद और विश्वास अवश्य रखा हूँ कि इक दिन उनके मन में मेरी यादों की दस्तक अवश्य  होगी और हम आपस में फिर से जुड़ेंगे और हमारे पुरानी दोस्ती की यादें  फिर से तरोताजा होंगी।

Wednesday, September 28, 2011

पढ़े लिखे पशु और बेचारे अनपढ़ भलेमानस


वैसे तो सुबह के समाचार पत्र में प्राय: कोई न कोई दु:खद घटना पढ़ने को मिल जाती है जिससे  मन खिन्न और उदास हो जाता है, किंतु आज सुबह टाइम्स ऑफ इंडिया में जब दिल्ली के एक डाक्टर द्वारा अपनी पत्नी की हत्या कर उसकी लाश बोरे में भर गंगा नदी में फेंकने की घटना का समाचार पढ़ा तो मन अति दु:खी व विचार-उद्वेलित हो उठाअनायास ही मन में दो दृश्य तरित हो उठे।

प्रथम दृश्य तो उभरता है समाचार पत्र में छपी इस घटना के पीछे के घटना-क्रम का खाका-दृश्य - कि एक मेधावी डॉक्टर, जो कि मेडिकल में प्रवेश की कठिन प्रतियोगी परीक्षा,जिसमें कि पूरे देश में कई लाख प्रतियोगी भाग लेते हैं पर कुछ हजार ही दाखिला पाने में सफल होते हैं, में सफलता पाकर और फिर मेडिकल की पॉच साल की कठिन पढ़ाई सफलतापूर्वक पूरा कर, जो कि अपने आप में बड़ी उपलब्धि है, फिर ईश्वर की प्राप्ति से भी दुरूह मेडिकल पीजी में दाखिला और उसमें अव्वल स्थान पाता है। हमारे देश में किसी भी युवा के लिये भला इससे बड़ी उपलब्धि और गौरव की बात क्या हो सकती है।

दस माह पूर्व ही पूरे दान दहेज के साथ उसकी शादी हुई थी और होने वाली पत्नी भी समकक्ष योग्यता की- बी टेक, एम बी ए और एक मल्टीनेशनल कम्पनी में अच्छे पैकेज के साथ नौकरी का ऑफर ,भला इससे भी उपयुक्त और होनहार जोड़ी हो सकती है, कह सकते हैं सब कुछ इतना अच्छा और सुंदर है कि बस किसी की नजर न लगे।



पर होनी को कुछ और ही मंजूर था।इतना होनहार , पढ़ा लिखा और योग्य डॉक्टर अपनी इतनी प्रतिभा सम्पन्न और काबिल पत्नी के साथ शादी के कुछ दिन के बाद से ही झगड़ा और मारपीट शुरू कर देता है और एक दिन अपनी पत्नी के दुपट्टे से ही गलाकसकर उसकी हत्या कर देता है। और उससे भी बड़ी विडम्बना यह कि माता-पिता ने अपनी इकलौती संतान और लाडली बिटिया के लिये जो कार दहेज में दिया था, उसी कार में उसका पति उसकी लाश बोरे में भर कर ले जाता है और दिल्ली से आठ सौ किलोमीटर इलाहाबाद के समीप गंगा नदी में फेंक देता है।वाह रे कलयुग।

दूसरा दृश्य मन में उभरता है करीब तीस-बत्तीस साल पहले का,मेरे बचपन-काल का। घर से स्कूल पैदल रास्ते के समीप ,गाँव की बस्ती से करीब एक किलोमीटर दूर तालाब के निकट एक डोम परिवार की झोपड़ी थी। गाँव के छूआ-छूत के परिवेश में यह उपेक्षित परिवार गाँववालों के लिये अस्पृश्य था इसलिये गाँव से दूर तालाब के किनारी सिकुड़ी सी जगह में एक गंदी सी व पुरानी झोपड़ी में रहता था। सात-आठ के आसपास की सदस्यों वाला यह परिवार, जिसमें दादा-दादी से लेकर पोता-पोती शामिल थे, इस रास्ते से स्कूल आते-जाते हम स्कूली बच्चों के  मन में मिश्रित विचार उत्पन्न करता- उत्सुकता और कौतूहल का, भय का,उनकी दीन अवस्था के प्रति दया व लाचारी का,उनके गंदगी भरे रहन-सहन के परिवेश के प्रति घृणा का।

पर हम स्कूली बच्चों के लिये सबसे आश्चर्य व उत्सुकता की बात होती जब हम सब शाम को स्कूल से लौटते होते और तब वे सब शराब में धुत आपस में महासंग्राम कर रहे होते- बूढा दादा अपनी बूढ़ी पत्नी को लाठी से मार रहा होता, और बुढ़िया दाँत निपोरते अपनी बहू को गाली दे और उससे झोटा-झोटौवल करती होती,उनका जवान बेटा अपने बूढ़े बाप पर लाठी भाँजता और बच्चे अपने जवान बाप को डंडे से मारते होते,और सुर में सुर मिलाते उनके घर में रहने वाले मरियल कुत्ते खींसे निपोरते लगातार भौंक रहे होते।

हम स्कूली बच्चे रास्ते पर खड़े इस महासंग्राम को आश्चर्य व कौतूहल से कुछ देर देखते फिर अपने बालमन में यह विचार करते घर को  प्रस्थान कर देते कि एक ही घर सदस्य , आपस में ही  इस तरह की जानलेवा जैसी मारपीट क्यों और कैसे कर सकते हैं ।

किंतु अगले ही दिन सुबह हमारे स्कूल जाते समय सारा दृश्य बदला होता। परिवार के वही सदस्य, जो कल शाम आपस में जानलेवा मारपीट कर रहे थे,  अभी तो एक दूसरे से लिपटकर हाय अम्मा,हाय बप्पा करते रो रहे होते। बूढा दादा जो कल लाठी से अपनी पत्नी को बेरहमी से मार रहा था, इस समय अपनी बुढ़िया की चोट पर गरम हल्दी-प्याज का पेस्ट लेपन कर रहा होता और वह बुढ़िया अपने पति को नेह से निहारती होती ,उनका जवान बेटा जो कल अपने बूढ़े बाप को लाठी से मार रहा था अभी बाप के सिर में तेल की मालिस कर रहा होता, बहू खाना तैयार कर बडे मनुहार के साथ अपनी सास ससुर और पति से कलेवा खाने का आग्रह कर रही होती, बच्चे भी बड़े जिम्मेदारी से बाड़े में बंद सूअरों को पुचकारते चारा खिलाने में लगे होते।

तो इस तरह सुबह के समय परिवार के  सभी सदस्य संयत,समझदार और सहृदयता से एक दूसरे की देखभाल व सुश्रुषा करते होते, पिछली शाम की अशांति और महासंग्राम का वहाँ नामोनिशान तक न होता। हम भी आश्चर्य से यह दृश्य देखते और यह विचार करते स्कूल निकल जाते कि क्या ये वही लोग हैं और इनका आपस में अभी इतना प्यार और स्नेह है, जो कल शाम को आपस में हिंसक जानवर की तरह लड़ मर रहे थे।

पर यह क्या , वापस शाम को देखो तो फिर वही कल का दोहराता दृश्य- शराब के नशे में सभी धुत ,फिर से उनका आपसी महासंग्राम, मारपीट, लट्ठमलट्ठ व गालीगलौज, यही सिलसिला प्रायः रोज ही चलता। तो उन लोगों की भी अजीब जाहिलपना भरी जिंदगी  थी और हम बच्चों को उनके इस मूर्खता व पागलपन पर आश्चर्य व हँसी आती।

पर विचार करें तो हम निश्चय ही सहमत होंगे कि वे जाहिल,मूर्ख  लोग शराब के नशे में चाहे कितनी भी मारपीट या सिरफुटौव्वल करते हों, पर हकीकी तौर पर उनके मन में एक दूसरे के लिये सच्चा प्रेम व भरपूर सहृदयता थी।उन्होंने अपने जीवन में किसी स्कूल या कालेज का मुँह तो नहीं देखा, वे निपट निरक्षर गँवार थे, पर देखें तो उनका हृदय मानवीय मूल्यों व सदासयता से सराबोर था।

इसके विपरीत , आज के अखबार की घटना, जो हमारे अति पढे लिखे शिक्षित काबिल समाज के बीच से है, को पढ़कर तो खुद के पढ़े-लिखे व पढ़ाई-लिखाई में होनहारी का तमगा ढोने में शर्म आती है क्या पढ़लिख कर हमारा सामाजिक ढाँचा, व हमारा स्वयं का यही व्यक्तित्व बन रहा है कि हम हिंसा,क्रूरता और निर्दयता में हिंसक पशु को भी मात देते  लगते हैं।

क्या इन पढ़े लिखे,अति शिक्षित , किंतु आचरण में  हिंसक जानवरों को भी मात देते , तथाकथित सभ्य समाज के सभ्य लोगों से , ये बेचारे अनपढ़ गँवार व्यक्ति लाख गुना बेहतर भलेमानुष नहीं हैंमेरा मन तो इस प्रश्न का उत्तर हाँ में देता है। कृपया आप भी स्वयं से यहीं प्रश्न पूछें और अनुभव करें कि आपका मन क्या उत्तर देता है? मेरा विश्वास है कि आप भी मुझसे कमोवेस सहमत ही होंगे।

Saturday, September 24, 2011

लेखन एवं भाषा व शब्दों की मर्यादा

मेरे बचपन में हमारे घर एक बुजुर्ग रिश्तेदार पधारा करते थे, उनकी उम्र अस्सी वर्ष से ज्यादा थी पर बड़ी चपलता से साइकिल चलाते दो तीन महीने में एकाधबार हमारे घर अवश्य आते। ऊँचा कद, गौर वर्ण,दुबले पतले पर स्वस्थ, युवाओं की तरह फुर्तीले व सक्रिय, धवल खादी का कुर्ता व धोती व पैर में चमड़े का नागरी जूता , इस स्वच्छ व शालीन भेषभूषा एवं मुखमंडल पर झलकती विद्वत्ता की आभा के कारण उनका इस उम्र में भी सुदर्शन व्यक्तित्व था।


खादी की भेषभूषा के अतिरिक्त अपने बात,विचार व आचरण में भी वे पूरे गाँधीवादी थे।वे हमारे अति सम्मानित व पूजनीय रिश्तेदार थे, अतः आवभगत व उनकी सेवा व सुविधा का हमारे पूरे परिवार द्वारा विशेष खयाल रखा जाता, हालाँकि वे स्वयं अति स्वावलंबी और अपने निजी आवश्यकताये स्वयं ही मैनेज करना पसंद करते थे- जैसे स्नान के लिये कुयें से स्वयं ही पानी खींचना, अपने कपड़े स्वयं धुल लेना ( जबकि अन्य बड़े-बुजुर्ग आते तो उनकी इन सेवाओं का बोझ हम बच्चों को उठाना पड़ता।) । 

वे कई वर्षों पूर्व एक मिडिल स्कूल के प्रधानाचार्य के रूप में सेवानिवृत्त हुये थे किंतु बच्चों की शिक्षा की प्रगति जानने में और इस हेतु बच्चों का प्रोत्साहित करते रहने में उनकी विशेष अभिरुचि थी। वे हमारी किताबें, नोट्स को ध्यान से देखते, और कोई भी मात्रा अशुद्धि होती तो उसपर हमारा ध्यान इंगित कराते। पर सबसे खास बात थी कि उनका अंदाज इतना मित्रतापूर्ण, सहज, व अपनत्व भरा होता था कि उनके द्वारा हमारी गलतियों की ओर  संकेत या टिप्पड़ी  हमारे मन में किसी भी तरह का संकोच या गलतियों के प्रति सुरक्षात्मक भाव, जोकि प्रायः हम अपनी गलतियों की किसी दूसरे के द्वारा आलोचना होने पर उनके प्रति अपना लेते हैं, उत्पन्न करने के बजाय हमें अपनी गलतियों से सीख व एक नये ज्ञान के प्रति प्रोत्साहन प्रदान करती थीं। इसीलिये हम सभी बच्चे उन बुजर्ग के साथ अति सहज अनुभव करते। 

वे हम सभी बच्चों को विभिन्न विषयों पर निबंध लिखने को देते।जिस बच्चे का निबंध सबसे उत्तम होता उसे पुरस्कार के तौर पर अपने खादी के साफसुथरे थैले में करीने से रखे किसमिस,अखरोट और सूखे मेवे खाने के देते। मुझे याद आता है कि कुछ सामाजिक समस्या आधारित विषय जैसे- दहेज प्रथा, जात-पात,छूआ-छूत,राजनीतिक भ्रष्टाचार , गरीबी व बेरोजगारी,जंगलों का सफाया व पर्यावरण का प्रदूषण इत्यादि, जिनपर कि भावावेश में हम अपने लेख में प्रायः अति प्रतिक्रियात्मक भाषा शब्दों का प्रयोग कर देते,  तो वे हमें इसके लिये बहुत सावधान करते हुये और नसीहत देते कहते- कभी भी लिखते समय,सदा यह ध्यान रखो कि तुम्हारे लेखन की भाषा व उसका भाव मर्यादित हों, लिखते समय  सही शब्दों का चयन बहुत आवश्यक है, और उनके भाव  मर्यादित व भद्रतापूर्ण हों ।

वे कहते – लिखने में जो शब्द इस्तेमाल करते हो और उनके जो भाव होते हैं, उनमें पढ़ने वाले को तुम्हारा व्यक्तित्व व संस्कार दर्शित होता है। तुम कितनी भी सत्य बात लिखों किंतु यदि तुम्हारे शब्द क्रूर व किसी व्यक्ति विशेष, या समूह या समुदाय पर सीधे आक्रामक आक्षेप या प्रहार करते हैं, जो किसी के मन को पीड़ा पहुंचाता हो या प्रतिष्ठा पर आघात करता हो, तो निश्चय ही तुम्हारे सारे लेखन की सार्थकता व शुभ उद्देश्य उपेक्षित हो जाता है, बजाय ऐसे लेखन से घृणा व झगड़े ही बढ़ते हैं।

वे इसी संदर्भ में हमें एक संस्कृत के श्लोक का स्मरण दिलाते-

सत्यं ब्रूयात्,प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्।
प्रियं च नानृतम् ब्रूयात्, येष धर्मः सनातनः।

अर्थात् सत्य बोलो, प्रिय बोलो, सत्य किंतु अति अप्रिय भी मत बोलो । इसी तरह प्रिय किंतु झूठ भी मत बोलो, यही सनातन धर्म है।

वे सावधान करते हुये कहते कि ध्यान रहे , तुम्हारी मौखिक कही बात तो लोग समय के साथ भूल भी जाते हैं, किंतु लिखी हुई बात तो समय के स्लेट पर अमिट लकीर की तरह होती है, लिखे शब्द बार-बार पढ़ने वाले को अपने भाव का स्मरण दिलाते रहते हैं।अतः लिखते समय तो उपरोक्त सिद्धांत और मर्यादा का पालन और महत्वपूर्ण हो जाता है। 

मैं जब भी कोई लेखन करता हूँ तो मेरे बुजुर्ग रिश्तेदार की वे कही बातें सायाश स्मरण हो आती हैं एवं लिखे शब्द और उसके भाव पर स्वभावतः ध्यान चला जाता है कि उनके अर्थों में कोई क्रूरता या प्रतिक्रियात्मक व हिंसात्मक भाव तो सन्निहित नहीं है।उनकी पुरानी नसीहत मेरे लेखन के दौरान किसी उत्तेजना या आवेशपूर्ण , आक्षेप या आहत करने वाले विचार-अभिव्यक्ति पर मर्यादा व नियंत्रण रखने में सहयोग करती है।

मैं फेसबुक या अन्य सोसल नेटवर्क जिनका मैं सदस्य हूँ,पर प्रायः देखता हूँ कि कुछ मित्रजन कुछ मुद्दों पर , जो निश्चय ही आज हमारे देश , समाज या संस्थानों के सामने गहरी चुनौती और संकट बन कर खड़े हैं, बड़ा ही उत्तेजनात्मक व प्रतिक्रियात्मक भाषा का इस्तेमाल करते हैं, ऐसे शब्द का प्रयोग करते हैं जिनमें किसी विशेष व्यक्ति,समुदाय या संस्थान के प्रति क्रूरता व हिंसा का भाव दर्शित होता है । तब मुझे उन बुजुर्ग की यह नसीहत व चेतावनी बरबस स्मरण आती हैं कि ऐसे लेखन से कोई सार्थक उद्देश्य पूरा होने व कोई समाधान या सुधार होने के बजाय प्रतिक्रियात्मक घृणा और वाद-विवाद और झगड़े ही बढ़ते हैं।


और तब मन इसी निष्कर्ष पर पहुँचता है कि ऐसा विचार जिससे घृणा और झगड़े-विवाद बढ़ें, उसे लिखने , अभिव्यक्त करने के बजाय तो मौन रहना ही ज्यादा श्रेयस्कर व कल्याणकारी है।

Thursday, September 22, 2011

-ट्रांसलेसन की फीस और कम्पोजीसन की छुट्टी....

मुझे स्मरण आता है कि हमारे छुटपन में गाँव में और हमारे गाँव के स्कूल में अंग्रेजी भाषा की बड़ी धाक व आतंक हुआ करता था, कोई भी व्यक्ति अगर थोड़ा भी गिटर-पिटर, जो अंग्रेजी जैसा सुनने में लगे तो गाँव के अशिक्षित लोग बडे प्रभावित और अचम्भित होकर उसकी बात सुनते।

कई बार तो कोई पुराना गाँव-वासी  जो अब शहर में नौकरी के सिलसिले में रहता और गाँव में वापस किसी अवसर पर आता और शहर में रहते अब बदली हुई आदत से  खड़ी बोली हिंदी में अपने गाँववालों से बात करता तो भी गाँव वाले कहते-भैया ये तो अब अंग्रेजी में बोलता है।

मेरे गाँव के ही एक बुजुर्ग दादाजी , जिन्होने स्कूल का तो मुँह कभी नहीं देखा, पर आजादी के पहले किसी देशी अधिकारी के घर में खानसामे का काम किये थे, वे हम स्कूली बच्चों को देखते ही कुछ अजीब सी भाषा में,गिटर-पिटर बोलना शुरू कर देते जो हम बच्चे भौचक्के से सुनतेऔर आश्चर्य करते  कि ये दादा जी तो फर्राटेदार अंग्रेजी बोल रहे हैं।

स्कूल में भी हमारे अंग्रेजी के मास्टर साहब भी छात्रों के लिये आतंक व अन्य अध्यापकों के लिये रुतबे के प्रतीक व ईर्ष्या के पात्र होते।सिर्फ वही थे जो पैंट-सर्ट और सूट जैसे पाश्चात्य वेषभूषा में स्कूल आते वरना अन्य अध्यापकगण तो साधारण देहाती पहनावा में ही स्कूल आते।

गाँव में हमें स्कूली पढ़ाई और उसको पूरा करने में अंग्रेजी की पढ़ाई करना ही असली बाधा और इस कारण कई महारथियों द्वारा अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़ देने के कई प्रचलित किस्से सुनने को मिलते कि फलाँ फलाँ कैसे अंग्रेजी की कक्षा में मास्टर साहव के पूछे गये सवाल का जबाब देने में इतने नर्वस हो गये कि क्लास में गश खाकर गिर पड़े और अंतत: उन्होने एवं उनके मातापिता ने उन्हें दुबारा स्कूल कदापि न भेजने की शपथ ले ली ,और इस तरह बेचारे ने हाथ के कलम की तिलांजलि देकर जीवन में सदा के लिये हल की मुठिया पकड़ ली।

इसी तरह कुछ ऐसे भी किस्से हम सुनते कि  किन-किन ने अपने कई प्रयासों के बावजूद अंग्रेजी विषय में हमेशा फेल हो जाने से मिडिल स्कूल का किला फतह नहीं कर पाये और उनके जीवन के बाद के अध्याय में उनसे यह पूछे जाने पर कि कौन सी जमात तक पढ़ाई किये हैं, एक जंग हारे हुये सिपाही की तरह गहरी साँस लेते जबाब देते कि वे कक्षा छः फेल हैं। यानि हमें अपने स्कूली जंग के पहले ही मोर्चे में यह कड़ी चेतावनी दे दी जाती कि इस जंग को जीतने के लिये हमें अंग्रेजी जैसे मुश्किल किले को फतह करना होगा।

इसी तरह एक रोचक वाकया हमें पता चला कि मेरे एक चाचाजी ,जो गाँव के दूर स्कूल में रहकर पढ़ते थे , अपने स्कूली पढ़ाई की अच्छी प्रगति की सूचना अपने पिताजी को इस तरह सूचित किये थे- पिताजी मेरी स्कूली पढ़ाई जबरदस्त और औव्वल चल रही है, इसके मजमून के तौर पर मैं नीचे अपना नाम अंग्रेजी में लिख रहा हूँ।उनके पिताजी पत्र में अंग्रेजी में लिखे उनका नाम देख फूले न समाये थे और वे महीनों तक अपने सुपुत्र जी के पत्र को जेब में लिये घूमते रहे और उन्हे जो भी राह चलते मिल जाता उससे आग्रह करके अपने सुपुत्र जी द्वारा स्वयं के अंग्रेजी में लिखे नाम को दिखा धन्य अनुभव करते।

मुझे याद है मेरे कई स्कूली साथियों के शादी के प्रस्ताव आ रहे होते तो भावी दूल्हा के पढ़ाई के बारे में आश्वस्त होने के लिये लड़की के पिता या उनके नजदीकी रिश्तेदार,  स्वयं स्कूल पधारते और उस बच्चे का वैवाहिक-इंटरवियु अंग्रेजी के सवाल से करते- व्हाट इज योर नेम? व्हाट इज योर फादर्स नेम? यदि बच्चे ने सही जबाब दे दिया तो वे अपनी खोज व प्रस्ताव पर पूरा आश्वस्त हो जाते और शादी की बात फाइनल हो जाती, वरना वे बड़ी निराशा लिये ऐसे नालायक लड़के  से अपनी बिटिया के विवाह के प्रस्ताव को फौरन खत्म करके वापस लौट जाते।

इस तरह न जाने कितने भविष्य इन अदने से दिखने वाले अंग्रेजी के चंद साधारण से सवालों से बन और बिगड़ गये।

मेरे एक सबसे प्रिय मित्र के पिताजी , और मेरे प्रिय चाचाजी , जो गाजीपुर के रहने वाले हैँ, अपने बचपन के दिनों और गाँव के स्कूल के बारे में अक्सर बडे रोचक प्रसंग सुनाया करते हैं। एक प्रकरण है उनके गाँव के बाल सहपाठियों की अद्भुत करामात की-

कुछ शातिर बच्चे अपने माँ-बाप की इस अशिक्षा और मासूमियत का फायदा अपनी कक्षा से बंक मारने अथवा घर से पैसा ऐंठने में भी करते- जैसे किसी दिन स्कूल जाने का मन नहीं या मौजमस्ती के लिये गायब होना है तो घर में माँ-बाप से बहाना बनाते कि आज स्कूल में कम्पोजीसन की छुट्टी है, या पास की हाट में लगे सर्कस को चोरी से देखने जाने के लिये अतिरिक्त पैसा चाहिये तो बहाना बनाते कि आज स्कूल में ट्रांसलेसन की फीस जमा होगी।

पता नहीँ अब इस इक्कीसवीं शताब्दी के नवीन व उभरते आर्थिक शक्ति व शिक्षित होते भारत के किसी स्कूल के शातिर बच्चे अपने माँ बाप की अशिक्षा व मासूमियत का फायदा उठाकर अपने स्कूल में कम्पोजीसन की छुट्टी और ट्रांसलेसन की फीस का पैसा झटक पाते हैं या नहीं?

Wednesday, September 21, 2011

-साहब! कुर्सी को सिर पर मत चढ़ने दें.......



नौकरशाही मायने कुर्सी।ये कुर्सी ही अधिकार,रुतबा,धाक और नाम-शोहरत देती है।पर उस कुर्सी पर बैठने वाला तो इंसान ही होता है,और इंसान की भी अजीब फितरत  है,कब कौन सा भ्रम अपने सिर चढ़ा लेगा उसको खुद ही होश नहीं।पता नहीं कब वह कुर्सी को भी सिर पर चढ़ा लेता है।

वह घर में पिता के रूप में,पति के रूप में सोचता है कि बस वही अपने परिवार का  भाग्यविधाता है, वह यदि  नहीं रहा तो परिवार पर प्रलय जायेगी,दफ्तर में सोचता है बस उसी के वजह से दफ्तर चल रहा है, अगर एक दिन भी नहीं रहा तो उसके रहने से तो बस कयामत ही जायेगी, दफ्तर बंद हो जायेगा।

कितना आग्रह, कितना हठ, कितनी आतुरता। उसको पता भी नहीं कि यह सब मात्र उसका भ्रम है,उसके रहने से किसी को कुछ भी और कोई भी फर्क नहीं पड़ता, क्या घर क्या दफ्तर, कहीं कुछ भी फर्क नहीं पड़ता उसके रहने अथवा जाने के बाद।

पर करे भी क्या, कुर्सी है ही ऐसी माया, डाल ही देती है इंसान को भ्रम में। कुर्सी के रुतबे के कारण लोग इंसान के आगे-पीछे घूमते हैं,हुकुम-तलब करते रहते हैं, हाँ में हाँ मिलाते हैं, बात-बात में वाहवाही जयगान करते हैं, घटिया से घटिया चुटकुले पर भी जोर से ठहाका लगाते हैं,पर उसको लगता है कि अरे वाह मैं तो अव्वल हूँ, बहुत काबिल हूँ, अकलमंद हूँ, तभी तो सभी कितनी मेरी धाक मानते हैं,मेंरी कितनी इज्जत करते हैं , गोया वह अपने को श्रेष्ठतर, विशेष योग्यता अधिकार युक्त समझने लगता है-

हाँलाँकि पढ़ा लिखा व दुनियादारी का बेहतर जानकार होने के नाते वह बातें तो जरूर करता है कि- all the animals are equal लेकिन अंदर से इसी ठसके में रहता है कि- some animals are more equal than others.

लेकिन यह क्या, एक दिन ,रिटायर होने के बाद, और जब कुर्सी नहीं रही , तो सब अचानक  बदल गया, कहां गयीं वे सब चाहत, सम्मान,सहमति और सत्कार  की भीड़ व उनके सारे ताम-झाम।तब एक जोर का झटका बडें जोर से लगता है, इकबारगी तो यकीन नहीं आता- जो कल तक नजरें बिछाये घूमते थे, वे आज देखकर नजरें बचा लेते हैं,जो कल तक एक छोटी सी आवाज पर  तलबगार बने दौड़े भागे आते थे, आज चार बार के फोनकॉल को भी इग्नोर कर देते हैं।

उसको यह अहसास करना बड़ा कठिन होता है कि यह सब धाक और इज्जत, जिसे वह निज की भारी काबीलियत व जन्मसिद्ध अधिकार समझ बैठा ता, वह तो कुर्सी के ओहदे के वजह से थी, उसका अपना व्यक्तित्व अर्जित और स्थाई तो कुछ कभी था ही नहीं।कुर्सी के बिना व उतना ही आम व लाचार इंसान है, जितने बाकी सभी साधारणजन।

इसी सिलसिले में एक वाकया आपसे साझा करना चाहूँगा- दस साल पुरानी बात है मेंरी तैनाती तब इलाहाबाद में थी। मेंरे दफ्तर में विभाग के बड़े ऊंचे पद से कुछ वर्ष रिटायर हुये एक वरिष्ठ अधिकारी पधारे।वैसे सीधे तौर पर मैंने इस बड़े साहब के अधीनस्थ के रूप में कभी काम नहीं किया था, किंतु सुन रखा था कि साहब अपने जमाने के बड़े टेरर अफसर हुआ करते थे। मैंने उनका यथासंभव पूरे आदर व सम्मान के साथ स्वागत किया।

वे सरकारी सेवा से निवृत्त होकर अब एक प्राइवेट फर्म, जो रेलवे के प्रमुख मैंटेरियल सप्लायर है, के लिये काम करते थे।वे अपनी वर्तमान नियोक्ता कम्पनी के किसी पेंचीदे मसले को विभाग में अपने पुराने रसूख व दबदबे के इस्तेमाल से फर्म के पक्ष में सुलझाने की उम्मीद में आये थे।मैंने भी एक धीरे-धीरे सध रहे नौकरशाह की तरह  य़थासंभव कार्यवाही का आश्वासन दे जल्दी छुटकारा पाने का प्रयाश कर रहा था।हाँलाँकि उनके हाव-भाव से मुझे स्पष्ट दिख रहा था कि मेंरा उनके अनुरोध के आवरण में दिये गये आदेश का सीधे तौर पर ना-अमल उन्हे बहुत नागवार गुजर रहा था।

संयोगवश मेंरे साथ उस समय मेंरे दफ्तर में एक दूसरे सज्जन , जो  एक साधारण से ही प्रोन्नत अधिकारी के पद से हाँल ही में सेवानिवृत्त हुये थे, भी उपस्थित थे।इन महोदय ने बड़े साहब से विनम्रतापूर्वक अपना परिचय देते यह स्मरण दिलाने का प्रयाश किया कि कभी वे इन बड़े साहब के मातहत के रूप में काम किये थे।

बड़े साहब  बातचीत का सिलसिला चलते धीरे धीरे अपने पुरानी साहबी के  भ्रमलोक में पहुँचने से लगे। वे उस भले आदमी से  ऐसे बात कर रहे थे मानों वह उनका अब भी वही अदना व तुच्छ मातहत हो।पर यह व्यक्ति मौका पाते ही बड़े सटीक ढंग से पलटवार किया कि- साहब रिटायर्ड आदमी तो फ्यूज बल्ब की तरह होता है, क्या जीरो वाट या क्या हजार वाट । साहब तो यह सुनते अचकचा गये और  अपना व्यावहारिक दम्भ  छोड़ बगले झाँकने लगे।

तो हमें समझ लेना चाहिये कि यह हजार वाट तो कुर्सी का होता है, वरना तो एक साधारण इंसान के तौर पर हममें ज्यादा फर्क नहीं है, हम सब हकीकत में और अंततः तो हैं जीरो वाट के ही- चाहे हम मंत्री हों या संतरी।

तो साहब कुर्सी को सिर पर मत चढ़ने दें, ज्यादा मजे में व आजादमन रहेंगे।