Sunday, October 9, 2011

धन व समय की मितव्ययिता


अपनी छोटी कक्षा में अंग्रेजी के कोर्स में प्रसिद्ध अमरीकी कथाकार टी एस ऑर्थर की एक कहानी - A Fine, Generous Fellow पढ़ी थी, जिसका संक्षेप में भाव कुछ इस प्रकार था-

कहानी के मुख्य चरित्र मि. पेटन ,यारों के यार दोस्तों के दोस्त हैं, चाहे सैर-सपाटा पर जाना हो, या कहीं होटल में खाना-पीना हो सबमें वे दिल खोल कर खर्च करते, कभी किसी साथी,दोस्त को जेब में हाथ तक न डालने देते । दोस्त भी जुबान से तो उनपर कुर्बान ही रहते, सब उन्हे उदार,सज्जनहृदय कहते, उनके आगे-पीछे घूमते,उनकी वाहवाही करते न थकते।

पर उनके व्यक्तित्व में एक विरोधाभाष भी था- बैंक में एक अदने से बाबू की नौकरी और सीमित आमदनी के कारण उनकी जेब महीने के पहले सप्ताह में ही खाली हो जाती,और हालत यह होती कि घर में काम करने वाली बाई के भी दस डॉलर महीने की मजदूरी देने के भी पैसे न होते और उस बेचारी गरीब को अपनी मजदूरी के लिये उनसे बार-बार तगादा करना पड़ता। वहीं दोस्तों के माँगने पर,अपनी झूठी शान व वाहवाही लेने के लिये,जेब खाली हो तो उधार लेकर भी दोस्तों की मदद करते, यह अलग बात थी कि उनके दोस्त उनकी इस शेखी की आदत को अच्छे से पहचानते हुये, उनसे लिया पैसा कभी न वापस लौटाते,और इसी चक्कर में ये महोदय अपने ऊपर अच्छा खासा कर्ज भी कर लिये थे।उनकी एक बूढ़ी असहाय माँ,जो गाँव में अकेले रहती थी उसको भी मदद व देखभाल के लिये न तो उनके पास कुछ पैसा बचता न कोई समय।

उन्ही के विपरीत उनका एक सहकर्मी मर्विन था, जो बड़ा ही गैर-सामाजिक,न किसी से मिलना जुलना,न किसी पर अपना एक पैसा खर्च करना और न किसी से एक पैसे का भी एहसान लेना,बस अपने में और अपने घर-परिवार में सिमटी जिदगी। सभी उसे घटिया,कंजूस-मक्खीचूस,घटिया कुत्ता कहते थे। पर हाँ! वह किसी का कोई उधार या बकाया कभी न रखता, घर में काम करने वाली बाई को महीने के पहले ही दिन मजदूरी के दस डॉलर बिना मॉगे,हाथ पर रख देता और वह बेचारी धन्य-धन्य करते आशीष देती। वह अपनी माँ को नियमित दो डॉलर हर हफ्ते भेजता।

इस तरह दुनिया,दोस्तों की निगाह में भले ही वह उपेक्षित व उनकी झूठ-मूठ की वाहवाही से दूर था, किंतु वह किसी आत्मश्लाघा से दूर पर पूर्ण सुखी व संतुष्ट जीवन जी रहा था।

एक दिन मि. पेटन के एक साथी ने उन्हे एक बिजनेस प्रस्ताव दिया,कि यदि वह दो हजार डॉलर निवेश कर दे, तो वे उस बिजनेस का भागीदार बन सकते है। बिजनेस प्रस्ताव तो बहुत आकर्षक था  परन्तु ये श्रीमानजी तो खुद ही कर्ज में डूबे थे, बिजनेस में क्या निवेश करते।वहीं उनके सहकर्मी मर्विन ने अपने बचत से थोड़ा-थोड़ा कर इकट्ठा किये पैसे से उसी बिजनेस प्रस्ताव में चट-पट निवेश कर डाला। तब मि. पेटन को अहसास हुआ कि उन्होने अपनी आत्मश्लाघा व झूठी वाहवाही पाने के चक्कर में अपने धन व समय के अपव्यय के स्वभाव में आजतक अपना कितना नुकसान कर लिया,और आज हालत यह है कि अपनी खुद की जरूरतें  पूरी करने में मुश्किल तो है ही, भारी कर्ज में भी डूब गये हैं।

तो प्राय: ऐसा होता है कि हम अपनी झूठी प्रतिष्ठा,प्रशंसा व आत्मश्लाघा के चक्कर में अपने धन व समय दोनों का भारी अपव्यय करते हैं, और परिणामस्वरूप वक्त पड़ने पर हम अपने को खाली हाथ व लाचार पाते हैं, वहीं धन व समय का मितव्ययितापूर्ण उपयोग व इनका सदुपयोग,संचय व सही निवेश देखते-देखते एक बड़े उपयोगी और मौके पर काम आने वाले पूँजी के रूप में उपलब्ध होता है, जिसको उपयोग में लाकर कोई बड़ा काम या शुरुआत संभव है।

आज किसी कारण से प्रकरण में आयी इस पुरानी कहानी ने मन को यह चिंतन करने को विवश कर दिया कि अपनी प्रायः लापरवाही व सहज आत्मश्लाघा के वशीभूत मैंने अबतक जीवन में  स्वयं का कितना समय व धन अपव्यय व नष्ट किया है,जिसका यदि मितव्ययितापूर्ण सदुपयोग किया होता तो निश्चय ही जीवन में कुछ और बड़ा , सृजनात्मक कार्य संभव था कि कर सकता था।

वैसे बीतों बातों पर प्रायश्चित्त या रूदन करने का कोई प्रयोजन तो होता नहीं। कहते हैं कि जब जागो तभी सबेरा।तो यही निश्चय कर सकता हूँ कि अपने जीवन के बचे समय और धन का तो कम से कम मितव्ययिता पूर्ण सदुपयोग कर कुछ सार्थक व सृजनात्मक योगदान कर सकूँ। कहते हैं न ! कि- अब ल्यों नसानी,पर अब ना नसैहों।

2 comments:

  1. मितव्ययता तो करता हूँ पर सब कुछ बचाने के चक्कर में भी नहीं रहता हूँ।

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  2. कई बार मितव्यता को कंजूसी से तात्पर्य समझ लिया जाता है और कोई कंजूस नहीं कहलाना चाहता.

    समय और पैसे को समझदारी से खर्च करने में ही समझदारी है. इसे जीवन में जितना जल्दी जो समझ लेता है उतना ही होशियार कहलाता है.

    इस कहानी का सन्देश हर जगह हर काल के लिये उपयुक्त है.

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