Monday, November 21, 2011

मन के विचार और समुद्र-जल-तरंगें




मोटरनौका पर सवार
जो निकलता हूँ मैं समुद्रयात्रा पर,
और दिखती है दूर-दूर तक
बस जल तरंगें ही तरंगें,
प्रायः सहजगति से
तो कभी असहज हो रहीं,
निरंतर सी आरोहित व अवहोरित,
मानों समुद्र के अनंत-विस्तृत
समतल अंक में केलि करती
प्रसन्न, स्मितमय ये समुद्रजल लहरें।


फिर होता है यह आभाष
कि मेरा स्वयं का मस्तिष्क ही
विस्तारित हो धारण कर लिया है
इस अनंतोदधि का स्वरूप,
जिसके पटल पर हैं संचालित
आरोह व अवरोहमयी, गतिमय
विचारश्रृंखलाओं की निरंतर लहरें,
हरपल नया स्वरूप धारण करतीं।
पर वास्तव में इनका कोई स्वरूप है?
या मस्तिष्क पटल पर आभाषित
मात्र कल्पनाओं का यह प्रतिरूप है?


यदि यह लहरश्रृंखला है
एक कल्पना,आभाष मात्र,
फिर सत्य है क्या ?
समुद्र समुद्र की गम्भीरता ?
समुद्र का विस्तार ? इसका विस्तृत सतह?
समुद्रजलराशि समुद्र-जल के अणु ?
या इन अणुओं के तत्व-परमाणु ?
या परमाणु के अंदर ऊर्जामय, निरंतर नृत्यमय इलेक्ट्रॉन ?
या इनसे भी परे,अलौकिक,
आभाष से रहित,अदृश्य मात्र,
इस निरंतरमय,गतिमय अध्याय में
आखिरी सत्य है क्या ?


सोचता हूँ यदि जान पाया,
इन समुद्रलहरों के सत्य को,
तो मिल पायेगा समाधान अवश्य ही
इन अनियंत्रित,आभाषित मनविचारों को।
तब शायद समझ पाऊँगा भी स्वयं को।

4 comments:

  1. सोचता हूँ यदि जान पाया,
    इन समुद्रलहरों के सत्य को,
    तो मिल पायेगा समाधान अवश्य ही
    इन अनियंत्रित,आभाषित मनविचारों को।
    तब शायद समझ पाऊँगा भी स्वयं को।

    कहाँ जान सका है इन्हें कोई भी और यही है आखिरी सत्य... गहन अभिव्यक्ति

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  2. सात्विक,सार्थक चिंतन...

    बहुत सुन्दर...

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  3. हिन्दी में अति सुन्दर और बंगला में भिशोड़ सुन्दर.
    Keep it up DD.

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  4. है अनन्त की चाह निराली,
    उसने जीवन डोर सम्हाली।

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