Tuesday, October 30, 2012

हैं दुनियाभर के रंजोगम,फिर भी मुस्कराते रहें।


कितना गम
और 
कितनी खुशी




परिवर्तन जीवन का अपरिहार्य नियम है।हमारा जो भी आज है वह कल कल में बदल जाता है व आने वाला कल एक नया आज लाता रहता है।आज जो हमारा अति प्रिय है,जिसको पाकर हम अति धन्य हैं,जिसके विछोह की कल्पना मात्र से हम अधीर हो सकते हैं,वहीं प्रियतम चीज कल हमसे निश्चय रूप से विलग हो जायेगी।जिन सुख-सुविधाओं के प्रति हमारा आग्रह है,जिनके बिना हम अपने सहज जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते,वहीं सुख-सुविधायें किसी न किसी कारण से हमसे दूर होंगी व हमें नये परिस्थितियों में इन सुख सुविधाओं से रहित जीवन जीना पड़ता है।

सबसे चुनौतीपूर्ण परिवर्तन का सामना तो हमें अपने जीवन में अपने शरीर व स्वास्थ्य को लेकर करना पड़ता है।नयी अवस्था,नया जोश,भरपूर ऊर्जा,लालित्य से भरा चेहरा व अंगप्रत्यंग ऐसा प्रतीत होता है मानों हमें पंख लगे हों,यूँ जैसे हम आसमान में उड़ रहे हो।फिर एक दिन अचानक जब एक व्यक्ति को जब यह पता चलता है कि जिस रूप-रंग-अंग लालित्य पर उसे बड़ा नाज है वह तेजी से क्षिण होने लगे हैं,चेहरा रूपहीन हो रहा है,दाँत टूट रहे है,बाल झड़ रहे हैं,चेहरे पर झुर्रियाँ आ रहीं हैं,घुटने जबाब दे रहे हैं,रक्तचाप बढ़ा हुआ है,और हृदय निरंतर कमजोर हो रहा है और किसी भी दिन इसकी गति अचानक रुक सकती हैं,गुर्दा लीवर जैसे प्रधान अंग लाचार और कमजोर हो रहे हैं और इस कारण शरीर की ऊर्जा व जोश निरंतर क्षिण हो रहा है।

निजी स्वास्थ्य की चुनौतियों के साथ-साथ इसी अवस्था में व्यक्ति के सामने पारिवारिक जिम्मेदारियों व सम्बंधों के स्तर पर भी अनेक चुनौतियाँ व जटिलतायें मुँह बा कर सामने खड़ी हो जाती हैं। अपने जीवनसाथी के स्वास्थ्य की समस्यायें,दाम्पत्यजीवन में अति घर्षण,बच्चों की शिक्षा-दिक्षा व उनका कैरियर,बुजुर्ग माता-पिता का दिनपरदिन बिगड़ता जा रहा स्वास्थ्य,नजदीकी नातों-रिश्तों की खटपट व उनसे संबंधित जिम्मेदारियों के निर्वहन का दायित्व,कुल मिलाकर कहें तो व्यक्ति अंदर और बाहर से,मन और शरीर से पूरा झकझोर दिया जाता है,यूँ प्रतीत होता है मानों अति ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर लगातार दौड़ते जा रहे घोड़े को उसका सवार लगातार कोड़े मार रहा हो कि और तेज दौड़ो,तुम रुक नहीं सकते,तुम थम नहीं सकते,तुम साँस भी नहीं ले सकते।इस तरह व्यक्ति  बेहाल दौड़ता जाता है,जहाँ उसका मन और शरीर दोनों निरंतर घायल व लहूलुहान हो रहा है।कितने रंजोगम,कितनी अकुलाहट,कितनी बेचैनी,मानों दुष्चिंताओं व परेशानियों के गहरे स्याह बादल ही उसके जीवन में उतर आये हों और उसके जीवन का उजाला घटाघोप अँधेरे से ढक सा गया हो।

इन दुविधाओं व दुश्चिंताओं में फँसे विचारश्रृंखलाओं की उलझन में फँसे व्यक्ति के मन के गहरे अंतर्चेतन से भी कभी एक चिंतन की चमकती लकीर मन के सतह पर तैर जाती है।यह व्यक्ति से कुछ गहरे प्रश्न करती है- किस बात से तुम हो दुखी,क्या तुम्हे पता नहीं कि तुम्हारा पूरा जीवनघटनाक्रम एक निरंतर चलचित्र है।जिसको तुम अपना निजी समझते हुये उसपर अधिकार जताते फिरते हो,उसके हमेशा पास रहने का मोह जताते हो, वह वास्तव में कभी तुम्हारा था ही नहीं। जिनको तुम परेशानी,कष्ट,दुख समझते हो और उनसे हमेशा आँख-बचाते, भागते फिरते हो ,उन्ही की माला अंतत: जिंदगी तुम्हारे गले में एक दिन डालेगी और तुम बिना कुछ कर पाने की स्थिति में इन्हीं अवांछित चीजों व परिस्थितियों के साथ जीने को मजबूर होगे।फिर किस चीज पर अधिकार जताना व किस चीज से आँख बचाना।समझो तो सबकुछ तुम्हारा ही है,और ज्यादा समझना चाहते हो तो तुम्हारा तो कुछ भी नहीं है।फिर किसके पास होने का हर्ष और किसके खोने का गम। 

वैसे भी इन सारे तथाकथित दुखों-मुसीबतों के बीच भी यदि व्यक्ति शांत,संयत और स्मितमय बना रहे तो प्राय: संभव कि कल फिर जीवन में आने वाले नये उजालों व खुशियों को वह फिर से पहचान पाये व आनंदित हो सके वरना तो हमेशा दुखी स्वभाव रखने से व्यक्ति को जीवन में अँधेरे का इतना अभ्यास हो जायेगा कि तुम कल के उजाले को भी नहीं सहन कर सकेगा।

इसलिये यह जीवन-चलचित्र हमारे सामने सुख लाता है अथवा दुख,प्रिय लाता है अथवा अप्रिय,हमें सदैव शांत व प्रसन्न रहना है, अक्ष्क्षुण शांति व चिर आनंद ही हमें हमारा स्वभाव बनाना होगा।

जीवन दे चाहे दुनियाभर के रंजोगम हमें फिर भी हम मुस्कराते रहें।

Friday, October 26, 2012

मन विहग क्यों हो विकल !



मन अशांत रहता है,चिंता करता है,विषाद करता है,क्रोध करता है, ईर्ष्या करता है,पश्चाताप् करता है,घृणा करता है,इसकी उद्ग्वीनता व विकलता के न जाने कितने आयाम हैं!

भौतिक व रसायन विज्ञान के कोर्स में पढ़ा था कि चाहे परमाणु हो अथवा कि कोई पिंड, उनकी शांत व संतुलित अवस्था उसकी अंतर्निहित ऊर्जा की पूर्णता की अवस्था में ही होती है,जब तक वह पूर्णता की अवस्था प्राप्त कर नहीं लेता,उसकी अस्थिरता व व्यग्रता बनी रहती है, व वह अनेक क्रियाओं,प्रतिक्रियाओं,गति,टकराव,खंडन,विखंडन, संघर्षण,आवेषण,संग्रह,विग्रह जैसी अनेकों भौतिक व रासायनिक क्रियाओं व प्रतिक्रियाओं से गुजरता रहता है।जैसे ही वह अपनी अंतर्निहित ऊर्जा की पूर्ण अवस्था प्राप्त कर लेता है,उसका सारा आवेग समाप्त हो जाता है,और शांत,संतुलित,स्थिर होकर स्थाइत्व की चिर-अवस्था में स्थापित हो जाता है।

इससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि चाहे एक सूक्ष्म परमाणु हो अथवा छोटा-बड़ा पिंड या पदार्थ,उसकी अंतर्निहित अपूर्णता ही उसके द्वारा किसी प्रकार की क्रिया-प्रतिक्रिया अथवा किसी आवेग-संवेग के व्यवहार का कारण होती है।

विचार करता हूँ तो अनुभव होता है कि यहीं पूर्णता का सिद्धांत हमारे मन के साथ भी लागू होता है।मन हमारा अपूर्ण व अतृप्त है,इसीलिये इतना क्षुब्ध,अशांत व अस्थिर है,हर छोटी बड़ी बात पर आंदोलित व उद्वेगित होता रहता है,क्रिया-प्रतिक्रियाओं के मकड़जाल में उलझा सा रहता है।

इतना ही नहीं,मन विचारों का जनक व प्रधान नियंत्रक होने के कारण, यह हमारे अंदर अनेकों नकारात्मक, अशुभ,अहितकरविचारों को जन्म देता है, जो न सिर्फ स्वयं का बल्कि अपने प्रभाव व व्यवहार क्षेत्र में आने वाले हर व्यक्ति के विचारों व कार्य-व्यवहार को प्रभावित करते हैं।यह तथ्य तो हमारे निजी अनुभव से ही सिद्ध हो जाता है कि एक अशांत व्यक्ति के संगत में हम स्वयं कितने अशांत हो जाते हैं,जबकि एक शांत व स्थिरचित्त व्यक्ति के संसर्ग व सत्संग में हमें कितनी शांति,स्थाइत्व व  आनंद का अनुभव होता है।

अब एक मौलिक प्रश्न उठता है कि आखिर हमारा मन इतना अपूर्ण,व नतीजतन अशांत, क्यों है, व इसकी पूर्णता व स्थाई शांति की प्राप्ति का उपाय क्या है? चूँकि यह प्रश्न मनोविज्ञान व आध्यात्म क्षेत्र से मुख्य सरोकार रखता है,और मेरा इस क्षेत्र में कोई औपचारिक ज्ञान नहीं है,अतः इस प्रश्न के उत्तर देने की मुझमें सहज योग्यता नहीं हैं,शायद पाठक स्वयं ही इस प्रश्न का उत्तर मुझसे बेहतर समझते हों।

किंतु व्यक्तिगत अनुभव व स्वाध्याय के माध्यम से जो थोड़ा बहुत इस विषय में समझ पाया हूँ उसके आधार पर तो मेरा तो यही विचार है कि हमारे मन की अपूर्णता का कारण है हमारा स्वयं के प्रति ही अपूर्णता का दृष्टिकोण।हमारा स्वयं के प्रति अहंभाव,एकांगीभाव, कि समष्टि से अलग  हमारा निजी अस्तित्व है, का दृष्टिकोण हमें पूर्ण से अलग व इसप्रकार हमें अपूर्ण व अस्थिर बना देता है।

सत्य तो यह है कि हम स्वयं ही समष्टि हैं और इस सत्य की पुष्टि ईशावाष्य उपनिषद् के निम्न शांति मंत्र से होती है-

ऊँ पूर्णमद:पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

अर्थात् वह ( आत्मा अथवा परमात्मा) पूर्ण(अनंत) है,और यह (जगत्) भी पूर्ण है, और यह पूर्ण उसी पूर्ण से व्युत्पत्त है। इसलिये इस पूर्ण से पूर्ण निकाल लेने पर भी वह पूर्ण मात्र ही बचता है।

इस सत्य के विपरीत जब हम विभेद में जीते है,अपने-पराये की अतिरेक भावना व आग्रह में रहते हैं,तो हमारी अंतर्निहित ऊर्जा अपूर्ण हो जाती है, व इस प्रकार इस अपूर्णता की स्थिति में हमारा मन व चित्तवृत्तियाँ अनेक प्रकार के आवेश,उद्वेग,चिंता-विकलता के आरोह-अवरोह में गिरते-उठते रहते हैं।

यह सिद्धांत के स्तर पर सोचना व तर्क करना तो सहज है किंतु वास्तविक आचरण के स्तर पर अनुपालन उतना सहज नहीं, बल्कि अति कठिन ही है।किंतु इतना तो स्पष्ट होता है कि हमारी सुख-शांति,शारीरिक अथवा मानसिक,मन की शांति व स्थिरता पर ही निर्भर है,और जैसा ऊपर चर्चा हुई,मन की शांति व स्थिरता उसकी पूर्णता की अवस्था में स्थापित होती है।

अतः अपने स्वयं के सुख-शांति की खातिर हमें स्वयं के प्रति अहंभाव,एकांगीभाव का त्याग करके समष्टि में ही, सबके अस्तित्व में ही अपना स्वयं का भी अस्तित्व होने के दृष्टिकोण के साथ जीना सीखना होगा, वरना तो यह मन विकल पक्षी बन भटकता रहेगा व नतीजतन हमारी सुख-शांति भी हमसे दूर ही रह जायेगी।  

Tuesday, October 23, 2012

(आर्थिक) असमानता की कीमत

जोसेफ स्टिगलिट्ज
विश्वप्रसिद्ध अर्थशास्त्री व नोबेल पुरस्कार( अर्थशास्त्र 2001 विजेता।


विगत सप्ताहांत वर्तमान विश्व अर्थव्यवस्था व इसकी मौलिक समस्याओं पर एक विशेष पुस्तक ‘The Price of Inequality- How Today’s Divided Society Endangers our Future’ पढ़ा। इस पुस्तक के लेखक अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार ( सन् 2001) से सम्मानित,  प्रसिद्ध अमरीकी अर्थशास्त्री,जोसेफ स्टिगलिट्ज हैं, जो अर्थशास्त्र में मानवीय मूल्यों व सामाजिक समानता व न्याय के पक्षधर मूल्यों के समर्थक व खुले बाजार में अंतर्निहित स्वार्थ व गरीबों के शोषण के विरुद्द प्रभावी आलोचक के रूप में विश्वभर में जाने जाते हैं।वे पूर्व में,बिल क्लिंटन के राष्ट्रपतिकाल में,  अमरीका के आर्थिक सलाहकार समिति के अद्यक्ष व तत्पश्चात् विश्वबैंक के मुख्य आर्थिक सलाहकार भी रहे हैं। वे वर्तमान में कोलंबिया युनिवरसीटी में अर्थशास्त्र के प्राध्यापक व युनिवरसीटी के वैश्विक चिंतन परिषद के अध्यक्ष भी हैं।

कुछ अमीर पर ज्यादा गरीब
(चित्र- गूगल के सौजन्य से)
इस पुस्तक में लेखक ने विश्वव्याप्त आर्थिक असमानता, समाज के धनीवर्ग व इतरवर्ग के बीच गहरी खाईं को विश्व व इसके सभी देशों की आर्थिक उन्नति के विरुद्ध गहरी बाधा बताया है।लेखक के अनुसार यह आर्थिक असमानता न सिर्फ व्यक्तिगत स्तर पर गरीब बहुसंख्यक वर्ग के जीवन को कठिन व दुःसह बनाती है, बल्कि यह सकल विश्वअर्थव्यवस्था को अति अक्षम,कमजोर व सदैव अराजकता के विनाश के कगार पर रखती है।इसके अतिरिक्त यह(आर्थिक असमानता)आर्थिक दक्षता व आर्थिक विकाश की गति को भी बाधित करता है।

लेखक स्वयं एक अमरीकी नागरिक होने व अमरीका का विश्वअर्थव्यवस्था पर प्रमुख प्रभाव रखने के कारण , अमरीका में व्याप्त घोर आर्थिक,राजनीतिक व सामाजिक असमानता व इनके दुष्परिणामों से जूझ रहे इस प्रमुख देश में असमानता के विभिन्न पहलुओं व इनके मूलभुत कारणों की बखूबी व्याख्या व समीक्षा किया है।

अमरीका जैसा देश , जिसे सपनों व अवसरों का देश माना जाता है,जहाँ के सफल व्यक्तियों,उद्यमों व बहुराष्ट्रीय कंपनियों की अद्भुत सफलताओं को एक स्वप्नलोक की तरह दुनियाभर में अनुकरणीय उदाहरण के रूप में लिया जाता है,किंतु वास्तविक आँकड़ों , विशेषकर सामाजिक समानता व समरसता के दृष्टिकोण से, पर नजर डालें तो यह अमरीकी स्वप्न लोक एक कपोल-कल्पना ही साबित होता है।इस मामले में अमरीका से बेहतर आंकड़े तो यूरोपीय देश और औद्योगिक रूप से विकसित  कई अन्य देशों के हैं।

लेखक के दिये आँकड़ों के अनुसार अमरीका जनसंख्या के  चोटी के 1 प्रतिशत लोगों का देश की कुल आय के 93 प्रतिशत पर कब्जा है,इसतरह देश के बाकी 99 प्रतिशत लोगों को आय की पाई का मात्र 7 प्रतिशत आपस में बाँट कर संतोष करना पड़ता है। असमानता के अन्य संकेतक- जैसे व्यक्तिगत आमदनी,स्वास्थ्य,आयुसंभाव्यता, भी अति खराब बल्कि बुरे ही हैं। असमानता की  कमोवेस यही स्थिति भारत सहित विश्व के अधिकांश देशों की भी है। इस प्रकार यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि जहाँ आमदनी व धन का अधिकांश अंश  उच्चधनी वर्ग , जो कुल समाज के एक प्रतिशत से भी कम संख्या में हैं, में केंद्रित है, वहीं मध्यवर्ग निरंतर खोखला व समाज का बहुसंख्यक निचला तबका निरंतर गरीब से गरीबतर हो रहे हैं।
यहाँ विशेष चौंकाने वाली बात तो यह है कि समाज के इस 1 प्रतिशत आबादी वाला उच्चधनी तबके का देश के अधिकांश आय व धन पर कब्जा का कारण उनका समाज के प्रति अधिक अथवा कोई विशेष योगदान करना होता तो इसे कुछ हद तक उचित भी ठहराया जा सकता था किंतु इसके उलट इनका सारा उद्यम व व्यवसाय अपने निहित स्वार्थ की सिद्धि व अर्थहीन अपव्यय में ही होता है।
इतना ही नहीं बल्कि आर्थिकसंकट की परिस्थिति को भी यह धनी वर्ग अपने निजी स्वार्थ पोषण में ही भुनाता है। जैसा कि विश्व के आर्थिकमंदी के दौरान देखने को मिला, कि जिन बैंकों, वित्तीयकंपनियों व नीतिनिर्धारकों नें विश्वआर्थिक व्यवस्था को इतना नुकसान पहुँचाया, इसे क्षत-विक्षत किया,उन्हें दंडित करने के बजाय उलटे भारी व भरपूर बोनस व अनेक अन्य फायदों से नवाजा गया। यह बिडंबना और समाज व विश्व के बाकी 99 प्रतिशत लोगों के साथ क्रूर मजाक नहीं तो और क्या है।

लेखक ने इस पुस्तक में यह आगाह किया है कि एक खंडित समाज जहाँ चोटी पर कुछ लोग तो अति धनी हैं,और उनकी ही लगातार उन्नति हो रही है, जबकि समाज का बाकी व बहुसंख्यक तबका, जिसमें मद्धयम व निचले सतह के गरीब वर्ग के लोग शामिल हैं,लगातार आर्थिक रूप से कमजोर व गरीबतर हो रहे हैं,एक अच्छी तस्वीर व अच्छे भविष्य की ओर संकेत नहीं करता।इस आर्थिक असमानता के नतीजतन न सिर्फ अमरीका बल्कि पूरे विश्व में आर्थिक,सामाजिक व राजनीतिक अस्थिरता बढ़ती जा रही है।और जब इस असमानता की खाईं बढ़ती है तो जहाँ एक ओर राजनीतिक तनाव बढ़ता है वहीं सामाजिक समरसता भी बुरी तरह प्रभावित होती है।

ऐसी वित्तीयप्रणाली जो गरीबों के शिकार व रक्त-शोषण पर निर्भर हो, जो आर्थिक रुप से अक्षम लोगों को क्रेडिटकार्ड जैसी घातक ऋणचक्रव्यूह में फँसाती है,कुछ निहितस्वार्थी गुटों व पैरवीकारों के प्रभाव में कुछ खासकंपनियों के फायदे मात्र हेतु काम आती हो,स्वाभाविक रूप से देश की आर्थिक स्थिति पर कुठाराघात की तरह होती हैं।यदि ऐसे वित्तीय (दुष्)प्रणाली से हमारी आर्थिकव्यवस्था से निजात मिल जाय तो हमें सुदृढ़ अर्थव्यवस्था प्राप्त करने व समता व समरसतापूर्ण सामाजिक व्यवस्था की स्थापना करने में निश्चय ही सफलता मिल सकती है।

इन हालातों में विश्व के कुछ देशों ने अवश्य इस असमानता के कैंसर को समय पर पहचाना व इसके उपचार पर कार्य करना प्रारंभ किया है, जैसे ब्राजील, व इनके सार्थक नतीजे भी उभर कर आये हैं।करीब डेढ़ दसक पहले ब्राजील में आर्थिक असमानताचरम पर थी, व परिणाम स्वरूप वहाँ की राजनीतिक व सामाजिक समरसता की दशा  भी निरंतर खराब हो रही थी।किंतु वहाँ के राजनैतिक नेतृत्व ने अपनी चेतना व देश के एकजुट प्रयास से इस असमानता की गहरी खाँई को पाटने में सफल रहे।नब्बे के दशक में वहाँ के राष्ट्रपति फर्नांडो इनरिक कार्डोसो की अगुआई मॆं शिक्षा के वृहत्तर विकाश पर महत्वपूर्ण व भारी निवेश किया गया क्योंकि इनको इस तथ्य का आभाष हुआ कि शिक्षा ही आर्थिक समानता के प्रभावी अवसर की सही कुंजी है।कार्डोसो के काबिल उत्तराधिकारी राष्ट्रपति लुला ने सामाजिक सुरक्षा को सुनिश्चित करने की दिशा में कई अनूठी व अति प्रभावी योजनाओं का शुभारंभ कर देश के आर्थिक हासिये पर रहते अति गरीब तबके को सामाजिक सुरक्षा प्रदान कर उनको अति गरीबी की दशा से ऊपर उठने व बेहतर जीवन जीने में सहायता प्रदान की।इन सार्थक प्रयासों व सही योजनाओं के सफल क्रियान्वयन से ब्राजील आज आर्थिक समानता व मानवीय विकाश सूचकांक में विश्व के अति श्रेष्ठ देशों में स्थान रखता है, और इस दिशा में यह विश्व में एक अनुकरणीय उदाहरण बनकर उभरा है।

लेखक ने इस उदाहरण द्वारा यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि आर्थिक समानता व आर्थिक उन्नति दोनों एक दूसरे की विपरीत अवस्था,जैसा कि प्रायः अर्थशास्त्र के नियमों में सामान्यतया समझा जाता है, यह सही धारणा नहीं, अपितु इस धारणा के विपरीत यह दोनों एक दूसरे के सफल पूरक व सहयोगी सिद्ध होते हैं।अतः विश्व को आर्थिक असमानता से मुक्ति व इसकी बेहतर आर्थिक स्थिति हेतु एक नयी उम्मीद सदैव जीवित है।यह समस्त विश्व के लिये शुभ संकेत है।

लेखक का कहना है कि आर्थिकसमानतापूर्ण उन्नति न सिर्फ बहुसंख्यक गरीब तबके हेतु अति महत्वपूर्ण है, अपितु समाज के उच्चस्तर पर बैठे अतिधनीवर्ग के स्वयं के हित में भी आवश्यक है, क्योंकि आर्थिक असमानता सामाजिक व राजनीतिक अराजकता लाती है, जो कि इस धनी वर्ग के अस्तित्व हेतु अति खतरनाक सिद्ध होता है।हालाँकि इस अल्पसंख्यक अतिधनी वर्ग को इस असमानता व इससे बहुसंख्यक वर्ग को हो रहीं कठिनाइयों का कतई अहसास नहीं हो पाता क्योंकि वे अपने आर्थिक ताकत व पहुँच से एक अलग तरह की दुनिया में जीते है- उनका अपना एक विशिष्ट वर्ग का स्कूल,विशिष्ट रिहायसी सुविधायें और विशिष्ट स्वास्थ्य सुविधायें उन्हें यह अहसास भी नहीं होने देते कि उनके इतर समाज का बहुसंख्यक तबका क्या आर्थिक दुर्दशा व कठिनाई का सामना कर रहा है।

आर्थिक असमानता के सार्थक समाधान की जब बात होती है तो प्रायः लोकतांत्रिक प्रणाली की इस दिशा में काबीलियत व सार्थकता पर संदेह किया जाता है।किंतु लेखक ने यह बल देकर कहना चाहा है कि लोकतांत्रिक प्रणाली का शासन आर्थिक असमानता के समाधान में सर्वथा सक्षम है।

हालाँकि लोकतांत्रिक प्रणाली में दुर्भाग्य से राजनीतिक जटिलतायें, जैसे चुनावप्रक्रिया,इससे संबंधित अतिरेक अनावश्यक खर्चे व इस हेतु अपनाये जाने वाले भ्रष्टाचारपूर्ण तरीके,अवसरवादियों द्वारा राजनितिक पार्टियों के साथ साँठ-गाँठ कर रेंटवसूली इत्यादि, अंतर्निहित जटिलतायें अवश्य होती हैं,और स्वार्थी तत्व देश के आर्थिक संकटकालीन परिस्थिति का भी उपयोग अपने निजी स्वार्थ की पूर्ति में करते हैं।
इन हालात में हमारे लोकतांत्रिक प्रणाली की राजनीतिक व्यवस्था निश्चय ही एक निराशाजनक पक्ष है । समाज का मात्र 1 प्रतिशत वर्ग जो राजनीतिकतंत्र का हिस्सा है वह  समाज के अन्य 1 प्रतिशत,जिसमें अति विशेष व धनी वर्ग शामिल हैं, के साथ मिलकर अपने निजी-स्वार्थपोषण हेतु ही सारी राजनीति का खेल खेलते हैं और इस स्थिति को बदलना भी बड़ा कठिन है।किंतु इन 1 प्रतिशतियों को अपने हित के लिये ही सही यह समझना चाहिये कि सर्वहित में ही उनकी भी भलाई है,अन्यथा उनके पैरों के नीचे लगी विशेष सुविधा की सीढ़ी खिसका दी जायेगी व उन्हें पता भी नहीं चलेगा।इतिहास इसका साक्षी है, इसकी विशेष चर्चा की यहाँ आवश्यकता नहीं है।

इन कठिन चुनौतियों के बावजूद भी सरकार द्वारा इन परिस्थितियों पर प्रभावी नियंत्रण रखते हुये व सही आर्थिक नीतियों व योजनाओं के अनुपालन द्वारा आर्थिकअसमानता पर कुशल नियंत्रण संभव है।
लेखक के ही शब्दों में – ऐसी सार्थक योजनायें उपलब्ध हैं , जिन्हें सरकार द्वारा प्रभावी रूप से अपनाकर सामाजिक व आर्थिक असमानता को कम करने, व समानता के बेहतर अवसर प्रदान कर आर्थिक सुदृढ़ता कायम करते हुये आर्थिकविकाश को जारी रखना संभव हैं।मैंने इस पुस्तक में यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि ऐतिहासिक रूप से अर्थशास्त्रियों का यह सामान्य तर्क कि सामाजिक समानता व आर्थिक विकाश दोनों ध्रुवीय विपरीत अवस्थायें हैं, निराधार हैं।

लेखक के अनुसार धनी वर्ग से अधिक कर वसूली व सरकार द्वारा उचित योजनाओं में निवेश व खर्च में वृद्दि के संतुलित नीति द्वारा एक और बजटघाटे को संतुलित रखने के साथ-साथ दूसरी ओर आर्थिक विकास व रोजगार के भी समुचित अवसर को भी गति प्रदान की जा सकती है। सरकारी धन का सही दिशा निवेश जैसे शिक्षा,तकनीकि व उत्पादन हेतु आवश्यक मूलभूत सुविधाओं के समुचित विकाश की योजनाओं में दीर्घकालीन खर्च व इनका सही क्रियान्वयन तो आर्थिक असमानता जैसी कठिन समस्याओं का समाधान अवश्य संभव है.

मुझको पापों से मुक्त करो माँ


हे जगदम्बे मात भवानी दया शिरोमणि
जननी हे भवनाशिनि दुखहारिणि  चिंतामणि
चपला हे जगप्रकाशिनी  हे विद्युतिमणि
कमला हे पद्मासिनी हे विष्णुहृदयमणि

उद्धार करो माँ,उपकार करो माँ
अधिकार करो माँ,स्वीकार करो माँ,
हूँ चरणकमल में प्रस्तुत  मैं,
जन्मोंजन्मों का तेरा कृपाऋणी।


हे जगधात्री, जीवनदात्री,
हे निधिदात्री,दुखसंघात्री।
हे अशुभनिवारिणि, शुभदात्री,
तवकृपा हो अकलुष कालरात्रि।

हे माँ कल्याणी,शिवराणी,
हे ब्रह्माणी,हरिहृदवाणी।
कृपा करो माँ,दया करो माँ
!
मुझको पापों से मुक्त करो माँ !
तुम दयाज्योति आलोकित मणि।

Thursday, October 18, 2012

कितने गियर बदलती जिंदगी।





कुछ उलझी कुछ सुलझी सी,
कुछ रुकती कुछ चलती सी,
कुछ बुझती कुछ जलती सी,
गरम तवे पर सिकती जिंदगी।1

माँ की गोदी में रहते थे बैठे सिकुड़े,
गलियों में थे धूम मचाते भागते दौड़े,
जीवन की गाड़ी और जुते अब घोड़े,
कितने गियर बदलती जिंदगी।2।

मिट्टी मुँह में डालें लगती लड्डू जैसी,
छक कर खायी चाट,पकौड़े लस्सी,
अब तो जीभ पेट में मचती रस्साकस्सी,
क्या क्या स्वाद बदलती जिंदगी।3।

चिकने टुकड़े पत्थर के चुनते थे रखते,
फिर थैली में रंगबिरंगे कंचे थे सजते,
तीनपाँच के चक्कर में हैं अब दिन खपते,
कुछ पाती कुछ खोती बेचारी सी जिंदगी।4।

नींदों में परियाँ ही परियाँ दिखती ,
सपने में गुल्ली डंडा से थी दर नपती ,
उलझन ही उलझन अब आँखे कब झपती,
करवट बदले थकी जागती सोती जिंदगी।5।
 
माँ की कहानियों में राजा से थे मिलते ,
यारों के संग चेहरे के क्या रंग थे खिलते ,
गुजरा कितना वक्त हँसे खुल दिल के रस्ते,
तासों के पत्तों सी फेंटती बँटती जिंदगी।6।