Tuesday, September 10, 2013

प्रकृति और अपरिग्रह

आज रात करीब तीन बजे ही नींद खुल गयी  और अनुभव हुआ कि पेट में भारी हलचल चल रही है, अभी कुछ ठीक से समझ भी पाता कि उल्टी जैसा अनुभव हुआ व मैं हड़बड़ी में भागता किसी तरह सिंक तक पहुँच सका, और फिर वमन का एक भारी दौर, पांच मिनट तक चले अपने शरीर के पाचनतंत्र की इस उत्छालन  प्रकिया में मेरे शरीर का तार-तार हिल गया, मुंह के स्वाद का तो यह हाल था मानो मैंने गलती से एसिड पी लिया हो।

अंततः शरीर के इस स्वतः संचालित परिमार्जन प्रक्रिया द्वारा शरीर के अंदर संचित हुए  विषादग्रस्त व अवांछनीय पदार्थों के निवारण से पेट को काफी राहत अनुभव हो रहा था व शरीर की अन्यमनस्कता भी धीरे-धीरे शांत हो रही थी।

कारण तो स्पष्ट ही था, पिछले दिन का असंयमित भोजन व खानपान, दो बार गणेश चतुर्थी पूजा का प्रसाद, फिर एक जन्मदिन की पार्टी में अतिरिक्त वसा व चीनी युक्त  खानपान व डिनर इस प्रकार अति भोजन का  ही यह दुष्परिणाम  था ।कई बार न चाहते हुए भी व अंतर्विवेक की चेतावनी के बावजूद भी हम औपचारिकता वश अतिभोजन के शिकार और बीमार पडते हैं।

यह स्वयं अनुभूत सत्य  है कि हमारा शरीर व इसके विभिन्न तंत्र की कार्यप्रणाली व  संचालन अपरिग्रह नियम पर आधारित है, शरीर वही स्वीकार कर सकता है जिसकी उसे अपरिहार्य आवश्यकता है, शरीर की मौलिक  आवश्यकता के इतर इसमें जो भी प्रविष्ट होता है वह इसके हेतु  अवांछित वैसे हानिकारक है। अतः हमारे शरीर व इसके विभिन्न नियंत्रण प्रणाली का निरंतर व अथक प्रयास यही रहता है कि अवांछित पदार्थ प्रथम तो शरीर में प्रविष्ट ही न करें, इसीलिए जरूरत से अधिक खाते ही तुरंत हमारे अंदर से सावधानी व खाने पर तुरंत  विराम देने हेतु संकेत आने शुरू हो जाते हैं, यह अलग बात है कि हम उन संकेतों की उपेक्षा करते खाना जारी रखते हैं, और आवश्यकता से अधिक यदि खा भी लिया तो यथाशीघ्र अवांछित पदार्थ का  शरीर से निवारण करें। इस प्रकार मेरे शरीर ने भी अपना मौलिक धर्म निभाते  अवांछित व अपचित अतिरिक्त भोजन पदार्थ  को वमन प्रक्रिया द्वारा शरीर से निवारण कर दिया  ।

सच कहें तो जब तक शरीर अपने अपरिग्रह नियम के पालन में सक्षम व सक्रिय  है तब तक हमारे शरीर में किसी प्रकार की व्याधि अथवा विकार नहीं होता, परन्तु जैसे ही इसका अपरिग्रह नियम भंग होता है, किसी भी कारण वश,  प्रायः तो हमारे स्वयं द्वारा ही  शरीरधर्म व इसके सदाचार के प्रति  अनुशासन हीनता व इनकी अवहेलना द्वारा ही , हमारा शरीर अनेक विकार व व्याधियों का शिकार बनता है।देखें तो हमारे शरीर के विभिन्न  विकार जैसे मोटापा, अतिरिक्त कोलेस्ट्रल इत्यादि, जो  अंततः गंभीर बीमारियों जैसे मधुमेह, रक्त चाप व अन्य हृदय संबंधी गंभीर रोग में रूपांतरित हो जाते हैं, के मूल में शरीर के अपरिग्रह नियम का भंग होना ही है ।

देखें तो हमारा शरीर ही नहीं अपितु प्रकृति का हर पक्ष अपरिग्रह सिद्धांत पर ही कार्य करता है, ग्रह नक्षत्रों,  हमारी पृथ्वी की गतिशीलता, सूर्य चंद्रमा एवं अन्य प्रकाश श्रोतों से हमें प्राप्त प्रकाश व ऊर्जा, पृथ्वी पर चर अचर सभी प्रकार का जीवन इसी अपरिग्रह नियम का पालन करते हैं। भौतिकी विज्ञान में विभिन्न सिद्धांत, चाहे वह प्रकाशिकी के हों, चाहे ध्वनितंत्र, चाहे  यांत्रिकी के हों अथवा हाइड्रालिक्स के सिद्धांत सभी का आधार अपरिग्रह नियम का अनुपालन है ।प्रकाश का परावर्तन, अपवर्तन अथवा विवर्तन सभी गुण अपरिग्रह के नियम के अनुपालन के ही परिणाम हैं ।

इसी प्रकार हमारे पशु पक्षियों के व्यवहार में भी अपरिग्रह धर्म का अनुपालन स्पष्ट गोचर होता है ।वे अपनी मौलिक आवश्यकताओं के इतर कोई भी सुविधा का निर्माण अथवा भविष्य हेतु संचयन नहीं करते ।शायद अपरिग्रह के सामान्य नियम के अनुपालन में अपवाद  मनुष्य मात्र ही हैं, मनुष्य अपने अतिरिक्त बुद्धि कौशल व जीवन व्यवहार चातुर्य की सहायता से न सिर्फ अपने जीवन यापन को सुगम बनाने का प्रयास करता है, अपितु वह अपनी व अपने भावी पीढ़ी की आवश्यकता हेतु भी सुविधा संचय करता है, और यही पर अपरिग्रह नियम भंग  होता है । आवश्यकता से अधिक अथवा भविष्य हेतु संचय अपरिग्रह सिद्धान्त के सर्वथा विपरीत है ।सुविधाओं का अतिरिक्त संचयन न मात्र उनके प्रबंधन की समस्या को बढ़ाता है, अपितु यह सुविधाओं व संसाधनों की सामान्य व सहज  उपलब्धता में भी गतिरोध उत्पन्न उत्पन्न करता है ।समाज में व्याप्त विभिन्न आर्थिक विषमताओं, व इनके परिणाम स्वरूप उत्पन्न जटिल सामाजिक विषमताओं के मूल में भी मनुष्य द्वारा  अपरिग्रह नियम की उपेक्षा ही है ।

प्रकृति के संतुलन का आधार उसके अपरिग्रह नियम का अनुपालन ही है।मनुष्य द्वारा इस प्राकृतिक नियम की अवहेलना के  परिणाम स्वरूप जो भी असंतुलन उत्पन्न होता है, प्रकृति अंततः उस संतुलन को वापस स्थापित करने का प्रयास करती है, जिसे हम प्रायः प्राकृतिक आपदा समझते हैं ।इस प्रकार  हमें यह ध्यान रखने की आवश्यकता है कि हमें जिन प्राकृतिक आपदाओं व संकटों का आज सामना कर रहे हैं इनके हेतु जिम्मेदार हम स्वयं हैं, इनके मूल में मनुष्य की अपरिग्रह नियम की घोर अवमानना ही है ।

7 comments:

  1. मनुष्‍य ने तो आज परिग्रह को अपना लिया है, संचय हमारा मूलमंत्र हो गया है। इस परिग्रह के कारण कितने दुख हैं, इसका किसी को भान नहीं है।

    ReplyDelete
  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" में शामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल {बृहस्पतिवार} 12/09/2013 को क्या बतलाऊँ अपना परिचय - हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल - अंकः004 पर लिंक की गयी है ,
    ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें. कृपया आप भी पधारें, सादर ....राजीव कुमार झा

    ReplyDelete
  3. समाज में व्याप्त विभिन्न आर्थिक विषमताओं, व इनके परिणाम स्वरूप उत्पन्न जटिल सामाजिक विषमताओं के मूल में भी मनुष्य द्वारा अपरिग्रह नियम की उपेक्षा ही है ।

    शाश्वत सत्य है यह……… इस दृष्टिकोण प्रेरणा के लिए अनंत आभार!!

    परिग्रह और परिग्रह की तृष्णाएं समस्त दुखों का कारण है और यही हिंसा व अत्याचार का उत्प्रेरक भी!!

    ReplyDelete
  4. आवश्यकता से अधिक ग्रहण नहीं करना चाहिये, ग्रहण कर लिया तो कम करना चाहिये, प्रकृति के सिद्धान्त को समय समय पर याद कर अपनाते रहना चाहिये। अपरिग्रह पर एक श्रंखला लिख रहा हूँ।

    ReplyDelete
  5. पंछी भी तो जब देखो तब चुगते रहते हैं। मुझे लगता है इनको जितना दो ये उतना सब चट कर जायेंगे। छत पर गेहूँ धो कर सुखाओ, दिनभर न ध्यान दो तो शाम तक 2-3 किलो कम हो जाता है। इनमे कुछ और भी विशेषता होती होगी।

    आदमी को तो जीभ पर नियंत्रण करना ही चाहिए।

    ReplyDelete
  6. आजकल हम तो अपरिग्रह के भरोसे ही हैं.. मन को समझा लिया है और जीभ को चुपचाप बैठा दिया है.. जिससे अतिरिक्त शारीरिक भार कम होने में मदद मिल सके..

    ReplyDelete