Sunday, November 1, 2015

जनाब मुनव्वर राणा साहब! अफसोस आप भी बेगाने, दोहरे मापदंडों वाले ही निकले....

कल शाम एबीपी न्यूज चैनल पर जनाब मुनव्वर राणा जी की उनके द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाये जाने के बाबत प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित थी जिसकी एंकरिंग देवांग कर रहे थे।

आजकल चूंकि अधिकांश टीवी चैनल खुले तौर पर मोदी सरकार के विरुद्ध अभियान चलाये हुए हैं इसलिए यह कहना कठिन है कि टीवी चैनल की यह प्रेस कॉन्फ्रेंस पुरस्कार लौटाने के बाद मुनव्वर राणा की बिगड़ती छवि को वापस सुधारने, उनको हीरो शायर के रूप में वापस स्थापित करने हेतु प्रायोजित थी अथवा यह एक सामान्य समीक्षा हेतु मात्र प्रेस कॉन्फ्रेंस ही थी, क्योंकि मुनव्वर राणा जी ने अपने पुरस्कार लौटाने की घोषणा भी बड़े प्रायोजित तरीके से ही कुछ दिन पहले इसी चैनल पर ही की थी।

पिछले हफ्ते भी इसी चैनल पर लेखक साहित्यकारों की एक प्रेस कांफ्रेंस आयोजित हुई थी जिसमें आर यस यस चिंतक राकेश सिन्हा जी सरकार और आर यस यस की ओर से पक्ष रख रहे थे जहां बामपंथी विचारधारा के साहित्यकारों का समूह उनको और सरकार /आर यस यस को घेरने और पिनडाउन करने की बराबर कोशिश कर रहा था।

कई बार ऐसा अनुभव होता है कि हमारे देश में बुद्धिजीवी वर्ग, विशेषकर बामपंथी विचारधारा के चिंतक, साहित्यकार, राजनेता इतना बौद्धिक अहंकार में रहते हैं कि उन्हें बाकी सभी अन्य विचारधाराएं नीच, गौड़ और अछूत लगती हैं, अपने अलावा उन्हें बाकी अन्य सभी विचारधारायें, विशेषकर राष्ट्रीयता और हिन्दुत्व की बात करने वाले अन्य बुद्धिजीवी और साहित्यकार या आरएसएस से सहमत लोग, बौद्धिक रूप से दरिद्र,अयोग्य, तर्कहीन और तुच्छ लगते हैं और अपने इस बौद्धिक अहंकार में उन्हें राष्ट्रहित की जुड़ी बातें भी कूड़ेदान में फेंकने में कोई गुरेज नहीं रहता।

कह सकते हैं कि देश की आजादी के बाद बामपंथी विचारधारा के बुद्धिजीवी, साहित्यकार व राजनेता इस देश के नये ब्राह्मण बन गये जिनकी हर सोच हर विचारधारा उन्हें सर्वोपरि, यहां तक कि राष्ट्र हित से भी ऊपर लगती है । तभी तो कम्युनिस्ट पार्टी के अहंकारी नेताओं ने आजादी से पूर्व में ही कांग्रेस पार्टी से अपने मतभेद और असहमति के कारण भारत के बंटवारे और मुस्लिमवर्ग के लिए अलग देश पाकिस्तान बनाने के लीगी प्रस्ताव को अपना पूरा, नैतिक और सक्रिय, समर्थन दिया। और आजादी के बाद भी सन् 1962 में जब चीन भारत का मानमर्दन कर रहा था, उस समय कम्युनिस्ट पार्टी के राजनीतिक चिंतक ' दिल्ली दूर, पेकिंग नजदीक ' का जुमला उछाल रहे थे। इस प्रकार कम्युनिस्ट विचारधारा के लिए देश हित सदा गौण रहा है, उन्हें तो मात्र देश की आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक विचारधारा पर वर्चस्व और नियंत्रण से ताल्लुक रहा है, भले ही उसके लिए देश में उन्हें कितनी अशांति पैदा करनी पड़े, मारकाट मचानी पड़े, देश अस्थिर हो, विखंडित हो। चूँकि कांग्रेस पार्टी जो सदैव सत्ता और इसकी दलाली के कार्य में ही लिप्त रही, उनका अपना कोई बौद्धिक चिंतन था ही नहीं और न ही कभी यह उनके प्राथमिकता में ही रहा, और आर यस यस से दूरी बनाकर रखना अपना राजनीतिक अस्तित्व बनाए रखने की राजनीतिक विवशता और मजबूरी रही, अतः अपने राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विचारधारा और चिंतन हेतु वे पूर्णरूपेण बामपंथियों की भिक्षा और बैसाखी पर निर्भर रहे।

जब हम इलाहाबाद युनिवर्सिटी में पढ़ने आये तो हमारे कुछ नजदीकी सीनियर जो वामपंथी विचार धारा की छात्रयूनियन से जुड़े थे, उनसे प्रेरित होकर उनकी गतिविधियों में घूमते, पोस्टर चिपकाते, सेमिनार भाषणों में भाग लेते,वहां आजाद, बिस्मिल, भगत सिंह की जोश भरी बातें कोट की जाती थीं, मजदूरों, गरीबों, कमजोर लोगों की तकलीफ की बात की जाती, सिस्टम बदलने की बात की जाती, दुष्यंत कुमार, मुनव्वर राणा और तमाम अक्लियत की बात करने वाले शायरों लेखकों के जोश दिलाने वाले कथन, शेर, नज्म दोहराये जाते, सब कुछ बड़ा जज्बा बडा़ जोश देता, उस समय हमें यही लगता कि हमारे ताकतवर भारत, हमारे खुशहाल भारत की यही सोच होनी चाहिए, इसके लिए सड़े हुए और भ्रष्ट वर्तमान सिस्टम को पहले बदलना होगा जिसमें कोई मजहब नहीं, कोई जाति नहीं, केवल भारतीय होंगे, कोई गरीब नहीं होगा, कोई भूखा नहीं सोयेगा , सबके पास रोजगार होगा, काम होगा,उन्नत और गौरव मयी भारत, स्वाभिमान युक्त हमारी अपनी सोच वाला भारत होगा!

इन्हीं युवा सपनों को लेकर आगे इंजिनियरिंग कालेज गये, फिर सरकारी नौकरी में आये परंतु युनिवर्सिटी के शुरुआती दिनों में मन में पड़े भारतीयता के बीज सदा पोषित और समृद्ध होते रहे, हालांकि 1990 के मंडल आंदोलन, बनारस के सांप्रदायिक दंगों में कुछ अभिन्न मित्रों के वास्तविक सोच और स्वरूप को देखकर अपने जाति और धर्म से परे भारतीयता की व्यापक सोच और दृष्टिकोण रखने वाले मन को ठेस भी पहुंची, मन को नये सत्य, नयी वास्तविकताओं, नये आयामों से साक्षात्कार और परिचय हुआ परंतु व्यापक भारतीयता की यह सोच मन में कमोबेश स्थायित्व के साथ सदैव बनी रही, और आज भी उसी तरह कायम है ।

मन के इसी व्यापक भारतीयता के स्थायित्व के हिस्से मुनव्वर राणा साहब भी बने रहे। इसीलिए इलाहाबाद में मेरी पोस्टिंग के दौरान राजभाषा दिवस पर आयोजित कवि-सम्मेलन में जब मुनव्वर राणा साहब का व्यक्तिगत रूप से दर्शन का सौभाग्य मिला, उनको अपने सामने खुद उनके द्वारा ही वह शेर , जिन्हें कालेज में हम दुहराया करते थे, पढ़ते पाया, उन्हें सम्मान प्राप्त करते देखा तो खुशी का ठिकाना नहीं था। जिसे आप मन से सम्मान देते हों उसे सामने सम्मानित होते देखकर मन में वैसी ही अंतरंग खुशी अनुभव होती है जैसे स्वयं को ही पुरस्कार मिला हो! मुनव्वर राणा मन में उस शायर की छवि लेकर सदैव बने रहे जो मजहब से ऊपर उठकर एक मुसल्लम भारतीय है!

हमारे कई यार दोस्त जो आज देश विदेश में रहते हैं वे भी मेरी तरह मुनव्वर राणा जी के जबर्दस्त चाहने वाले रहे हैं, हम सब मुनव्वर राणा जी की तमाम नज्में, शेर अक्सर एक दूसरे से अपने व्हाट्सअप ग्रुप में साझा करते रहे हैं। शायद मुनव्वर राणा साहब को अहसास भी होगा कि नहीं कि उनके चाहने वालों की अधिकांश जमात उनके अपने मजहब से बाहर के, हम जैसे लोगों की ही होगी न कि सिर्फ उनके अपने मजहब से ताल्लुक रखने वाले लोगों की!
एक राजनीतिक सोचे समझे एजेंडा के तहत कुछ साहित्यकारों, लेखकों, जिनकी आस्था और स्वामिभक्ति कुछ राजनीतिक दलों से जुड़ी हुई हैं, द्वारा शुरू किए गए मोदी और वर्तमान केंद्र सरकार के विरुद्ध दुष्प्रचार और शुरु हुये प्रोपोगंडा के अंतर्गत शुरू किए गए पुरस्कार लौटाने के तमाशे में जब मुनव्वर राणा साहब भी शामिल हो गए, वह भी एक टीवी चैनल के प्रायोजित प्रचार प्रसार के साथ तो अपने मन में उनके प्रति कायम आस्था को बड़ा झटका लगा, और मन में यही निराशा हुई कि अफसोस! यह जनाब भी औरों की ही तरह असल में दोहरे चेहरे, मापदंड और आवरण ओढ़े ही निकले, जिनकी शायरी में हमें सच्चाई, मुफलिसों की तकलीफ,जिसकी बातों और शायरी में अक्लियत की हलकानी शिद्दत से अनुभव होती थी, वह बस एक खाली डिब्बा मात्र निकला, जो उसे बजाने वाले उंगलियों के थाप के इशारे के मुताबिक बस बजता, आवाज करता है, उसकी निजी सोच, निजी अनुभूति कुछ भी नहीं है , वह तो बस औरों की ही तरह ही किसी मदारी के इशारे पर नाचने वाला मात्र जमूरा भर है! अभी तक जो व्यक्ति हमारे हृदय में दुष्यंत कुमार के साथ बैठा हुआ था, शिद्दत के सम्मान के सम्मान के साथ आसीन था, उसके वास्तविक चरित्र और रूप को आज अनुभव करके वह आज अपने हृदय और आस्था से कोसों दूर दिखता है, जिस व्यक्ति की आंखों में पंद्रह साल पहले सामने देखते भाईचारे, दोस्ताने और एक  निर्भीक शेर कहने वाले शायर और सच्चे भारतीय की चमक दिखी थी, कल टीवी चैनल पर उसके द्वारा बोलते हुए, लोगों के सवालों के जवाब  देते मीचमिचाती, लोगों की निगाहों से नजर चुराती, धूमिल, किसी एजेंडे, गुपचुप मकसद से भरी नजर आ रही थीं।

मुनव्वर राणा साहब! आपको शायद आभास भी नहीं होगा कि मेरे जैसे तमाम आपके चाहने वालों के विश्वास और उनकी आपके प्रति भारतीयता की आस्था को आपने किस तरह की चोट पहुंचाई है! आपके टीवी पर आयोजित बड़े प्रचार प्रसार के साथ साहित्य अकादमी पुरस्कार को लौटाने के किये गये तमाशे  का मकसद,एजेंडा क्या है,और यह किसके इशारे पर आपने किया है, यह आप स्वयं ही बेहतर जानते और समझते होंगे परंतु इतना अवश्य कहना चाहता हूं कि मैं भी इस देश का ही नागरिक हूँ, इसी देश में ही रहता हूँ, मुझे तो ऐसा कहीं कोई अप्रत्याशित वातावरण नजर नहीं आता कि जिससे देश का अमन चैन धार्मिक सद्भावना बिगड़ रहा हो, या इस तरह के किसी खराब माहौल बनाने में केंद्र सरकार और मोदी जी का कोई योगदान हो रहा है। मन में विचार तो आ रहा है कि आपको ध्यान दिलाऊं कि हाल में जो देश में एक दो दुर्भाग्यपूर्ण घटनायें हुई  है, जिनमें दादरी में अख्लाक की घटना सबसे संगीन और दुर्भाग्यपूर्ण है, उनके लिए स्थानीय प्रशासन और संबंधित राज्य सरकारें जिम्मेदार हैं, जिनसे आप खुद बहुत नजदीकी ताल्लुकात रखते हैं , उनसे गाहे बगाहे सम्मान पुरस्कार लेते रहते हैं,उनके हाथों सम्मानित होते रहते हैं, न कि इन घटनाओं हेतु जिम्मेदार केंद्र सरकार और मोदी जी हैं !

जनाब मुनव्वर राणा साहब! आपने अपनी शायरी में भारतीयता, धार्मिक सद्भावना की बात हमेशा की है और इसीलिए आप हमारे चहेते शायर रहे हैं, मगर दादरी के मसले पर आप जिस तरह अपना पुरस्कार लौटाकर टीवी पर प्रायोजित कार्यक्रमों में भावनात्मक प्रतिक्रिया भारत सरकार के विरुद्ध अभिव्यक्त कर रहे हैं, उसका एक अंश भी अगर आप 84 के सिख जिनोसाइड की जिम्मेदार कांग्रेस पार्टी और उसके मुखिया राजीव गांधी और उनके परिवार के खिलाफ व्यक्त किये होते, 93 के आतंकवादियों के मुंबई ब्लास्ट में मारे गए निर्दोष नागरिकों की हत्या के लिए जिम्मेदार विदेश में बैठे डॉन महोदय, जिनके मजहब, नाम और काम से आप सर्वथा सुपरिचित हैं, के खिलाफ कभी कहे होते , या कश्मीर के मूल निवासी कश्मीरी पंडित भाइयों की पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवादियों द्वारा जघन्य हत्याओं के खिलाफ अभिव्यक्त किये होते , उनके बहू बेटियों के सरेआम अगवा और बलात्कार के खिलाफ अपनी जुबान खोलते, इसी तरह की पीड़ा और दुख जताते तो मैं निश्चय ही मान लेता कि आप एक सच्चे इंसान, सच्चे शायर जो तकलीफजदा इंसानों के दर्द को समझते हैं और वही अपनी शायरी में सच्चाई से, बिना लागलपेट के कहते हैं, मैं आपके इस दुख और अभिव्यक्ति के क्षणों में साथ खड़ा होता, आपके इस पुरस्कार लौटाने के कदम की खुली प्रशंसा करता, बंगलौर से लखनऊ आकर आपको सादर प्रणाम करता, वरना तो हुजूर आपकी सारी शायरी, उसका सारा बयान फक्त एक लफ्फाजी मात्र लगती है।

जनाब! मैं जानता हूँ कि आपसे कोई सत्य, कोई तथ्य कहना सर्वथा निरर्थक है क्योंकि जिसे सच्चाई और परिस्थिति की जानकारी नहीं हो उसको कुछ कहा बताया जा सकता है, परंतु जो एक महान शायर हो, जो हर पहलू को गहराई से, शिद्दत से समझता हो परंतु सब कुछ जानते हुए भी सच्चाई की अनदेखी कर रहा हो, जिसके मन में किसी राजनीतिक पार्टी और विचारधारा से असहमति मात्र होने के कारण अपने मन के अहंकारवश उनके प्रति व्यक्तिगत दुराव  हो , जिसकी अपने देश और समाज के प्रति भावना और जिम्मेदारी की प्राथमिकता के बनिस्बत उसकी व्यक्तिगत राजनीतिक और मजहबी पसंद नापसंद ज्यादा महत्व और मायने रखती हो, जो  किसी और के राजनीतिक स्वार्थ और एजेंडे पर काम कर रहा हो,इस्तेमाल किया जा रहा हो, उससे कुछ कहना सुनना निष्प्रयोजन ही है, सिर्फ बेमानी ही है ।

Saturday, September 12, 2015

मालती लता

(स्केच नंबर १०)

हे मालती लता!  
तुम सुंदर यौवना सदृश,
अपनी कटि को कुछ लचक दिये,
अल्हणपन यौवन को लिए हुए
तनी खड़ी हो थी , मतवाली बाला की जैसी!

तेरी सुंदरता के सम्मोहन से
जो समीप मैं तेरे आऊं, और नजदीक से तुझे निहारूं,
तो हूं पड़ता आश्चर्य बहुत मैं
कि कौन सा जादू तेरी सुंदरता में ऐसा
छिपा हुआ तुझे इतना बल देता
जो तुम खड़ी, तनी अल्हड़ युवती सी
जबकि तना तुम्हारा  कोमल, कितना कृषतन!
और डालियाँ तेरी कितनी लतर मुलायम!
और ऊँचाई उनकी है अति लघु,
ऊपर से तेरे मतवाले यौवन के खिलते
फूलों के अति भार से भी यह लदी हुई हैं!

तेरा अपने आप इसकदर तनकर खड़ा यूं रहना,
चमत्कार से यह क्या फिर कोई कम दिखता है?
दरअसल जिस लकड़ी या तार या पेड़ के तने के सहारे 
हे मालती लता!  तुम खड़ी हो दिखती,
उसको अपने प्रेमपाश में कुछ इस तरह स्वयं के कोमल तन से,
और लदकते अपने गुलाबी फूलों से आगोशित, इस कदर घेर लेती हो
कि तेरा संबल दूर से नहीं अलग कहीं नजर है आता,
दिखती हो सिर्फ तुम और तुम्हारा सौंदर्य, हे मालती लता !
और तेरा संबल तेरे सौंदर्य में ही आत्मसात, छिपा, खोया रहता है।

करता होगा कोई वृक्ष गुमान अपने मजबूत तने पर,
और अपनी नैसर्गिक मजबूती, खड़े होने की  ताकत देते अपने तने पर,
शायद करता भी हो उपहास तुम्हारा
कि तुम हो कितनी कमजोर, और तुम्हारे स्वयं खड़ा हो पाने की अक्षमता पर
मगर हे मालती लता! तुममें और एक मजबूत वृक्ष में कुदरती फर्क है !
और यही फर्क ही मालती लता तुम्हारा अद्भुत सौंदर्य है ।

लोग समझते होंगे, कहते होंगे कि तुम कितनी कमजोर और लुंजपुंज हो!
अपने -आप इंच दो इंच भी न ऊपर उठ सकती हो!
मगर सहारे को अपने तुम देकर पूरा मान स्नेह,
उसको अपने तन मन को अर्पित कर, आगोशित कर,
ऊपर चढ़ जाती हो, चढ़ती ही रहती हो, इठलाते तनते
मगर  तुम्हारा बलखाना, इठलाना यह
नहीं कोई है दर्प तुम्हारे मन के अंदर,
यह तो बस तेरी प्रेम भावना, है यह तो आभार प्रदर्शन
जो तुम अपने संबल को अपनी कृतज्ञता से
आजीवन, अपनी अंतिम सांसो पर चुकता करती हो |

-देवेंद्र

फोटोग्राफ - श्री दिनेश कुमार सिंह द्वारा

Friday, September 11, 2015

कच्चे अमरूद

(स्केच नंबर ९)

कच्चे ताजे अमरूद रहे हैं साथी अपने बचपन से,पसंद हम सबके,
चाहे घर के बागीचे में मां के रोपे हुए पेड़ की टहनी पर वे हों लदके,
या स्कूल के रास्ते में बुढ़िया दादी के घर के बागीचे में वे हों लटके,
या स्कूल के प्रांगण में अपने रेसस के टाइम कच्चे अमरूदों को पेड़ों से हम तोड़ा करते,
या फिर  रेलवे के अपने बंगलें के बागीचे के पेड़ों पर कच्चे हरे सजीले दिखते।

उम्र हो गई, फिर भी जो देखें फुटपाथों पर ठेले पर सजे हुए इनको हरे हरे और ताजे,
मुंह में पानी आ जाता, खुद को रोक न पाते, दो-चार छांटते खरीदते खाते,
इनको फांकों में काट, लगाकर नमक मशाले, जो इनको खाते
लाजबाब यह लगते, इनके स्वाद की तुलना क्या है कोई और कर पाते?

कच्चे यह अमरूद होते हैं बड़े कसैले, जो दांतों से काटें खायें,
मगर चबाते बड़े रसीले लगते हैं जितने खट्टे उतने ही हैं मीठे होयें,
मानो वह खुद के अंदर जीवन का दर्शन सारा हो लिये समेटे
कि जीवनपथ पर ऊंचनीच के अनुभव, होते हैं प्रथम बहुत कड़वे और कसैले,
मगर वही अनुभव कल बनते, आगे चलकर  अपने सच्चे साथी, मीठे फल देने वाले,
सही सबक हैं देते , विश्वास, आत्मबल, और जीवन में मनोबल बढ़ाने वाले।

-देवेंद्र दत्त मिश्र
फोटोग्राफ श्री दिनेश कुमार सिंह द्वारा

Thursday, September 10, 2015

परमवीर अब्दुल हमीद के शहीद दिवस पर उन्हें हार्दिक नमन....

सननन गोली चले चले बम गनवा हो
सुनि के करेजा धड़के ला परनवा हो

पाक नाहीं पाकी कइलस
देश साथ घात कइलस
चोरी चोरी बॉडर लंघलस
घुसपैठी हमला कइलस
डोंगराई क्षेत्र रहल बारिश क महीनवा हो
सनसन...

अब्दुल हमीद जइसन देश क पहरेदार रहलन
तन मन दिल से ऊ त भारतमां क लाल रहलन
छाती में गोली लागत तब्बौ मोर्चा नाहीं छोड़लन
हाथ हथगोला से ही पैटनटैंक उड़ाइ देहलन
देशवा के शान खातिर  देलेन आपन जनवा हो
सननन....

जय हो बहादुर अब्दुल तोहसे देशवा निहाल भइल
तोहरे जनम लेहला से माटी गाजीपुर क तरि गइल
अमर हउअ सबके दिल में बस देहियां शहीद भइल
तोहरे बहादुरी क गाथा, हर भारतीय हरदम गाइल
नाम तोहार रही अमर जब तक रही ई देशवा हो
सननन.. ....

-देवेंद्र दत्त मिश्र

शिक्षक!स्वयं सिद्ध और निर्भय करता!

(पटरी और चक्का - स्केच - 3)

कितने लुंजपुंज से सिमटे
घोसले के तिनकों में दुबके
मां जो चुन कुछ चारा लाती
बस उस अवलंबन पर पलते।

कितने नाजुक रेशम रोमित,
तेरे पंख अभी अविकसित
जग से नभ से पूर्ण अपरिचित
क्या उड़ान यह भान न किंचित ।

एक सुबह,जब नहीं ठीक से
थीं आंखे तेरी खुलीं नींद से
मां ने तुमको चोंच उठाया,
छोड़ दिया हवा में ऊंचे से।

तुम घिघियाते, चिंचीं करते,
लगे बिलखने हवा में गिरते,
भय से मन और प्राण सूखते,
था नहीं पता कि कैसे उड़ते।

अंदेशा, गिरने की बारी,
संघर्षों के पल थे भारी,
नहीं जानते पंख फैलाना,
फिर भी उड़ना थी लाचारी।

मगर अचानक चमत्कार यह,
पंख कुशल गतिमय हो जाता,
खामखाह डरता था कितना,
वह पक्षी अब खुलकर उड़ता।

पक्षी तेरा वह शिक्षक अनुपम ,
जो डर के आगे विजय दिलाता,
नभ में खुला धकेलकर तुमको,
स्वयं सिद्ध और निर्भय करता!

-देवेंद्र
फोटोग्राफ - श्री Dinesh Kumar Singh सर द्वारा

पत्र की ममता बनती पुष्प के जीवन का कवच अलौकिक ..

(स्केच नंबर - 4)

हे नाजुक, कोमल पुष्प!
मेरे अंकों में जब हुए प्रस्फुटित तुम जिस क्षण
बनकर मेरे आत्मज, सार्थक हुई मेरी ममता, रोम-रोम हुआ आह्लादित, अंग का हर कण!
तेरी कोमल पंखुड़ियों से करके स्पर्श
मेरे शरीर का रोम रोम रोमांचित है हो उठता,
तनिक पवन जो गुजरे भी मेरे अंकों से,
तुम हिलते,कुछ सहमे से रोमांचित हो उठते
मेरे अंकों में  लिपट चिपट हो जाते
मैं भर तुमको अपने अंकों में, लेकर तेरी सभी बलायें
करता तुमको आश्वस्त, तुम्हें मन ही मन देता यह दुआ सदा कि
लगे तुम्हें यह उम्र मेरी यह, बढ़े, पले तू खूब, लाल तुम जुगजुग जीये
जो भी कोई तेज धूप की किरणें दिखतीं तुमको छूते
मैं राहों में छाया बनते तुम्हें बचाऊं कुम्हलाने से
मगर हृदय में एक हूक यह भी उठ जाती यदाकदा
डर जाता यह कि तुम कितने कोमल हो,  नाजुक हो कितने!
समय ढल रहा, क्रमश:मेरे पांव और अंक थकते हैं,
जब वे होंगे शक्तिहीन कैसे कर पाऊंगा मैं तेरा रक्षण
लेते प्रतिपल तेरे सिर की सभी बलायें
मन हो जाता कभी व्यग्र और हो अति व्याकुल
प्रिय तेरी चिंता में, तेरे भविष्य की आशंका में
मगर मेरी ममता,  स्नेह की शक्ति निहित मेरे अंतर्उर में तेरी खातिर
बनकर मेरी शक्ति हृदय की मन को यह विश्वास सहज दे देती है
कि जिस अमर शक्ति की परम कृपा से बनकर अमूल्य वरदान तुम हे लाल! मेरे जीवन में आये
वही शक्ति देगी सदा कृपा और अपना संरक्षण
तुमको चिरायु रखेगी देकर अपना पोषण
यह अदृश्य उस परमशक्ति का विश्वास अटल ही
मुझको तुममें निज भविष्य के संरक्षित होने का अचल आश्वासन है देता।

-देवेंद्र
फोटो - श्री Dinesh Kumar Singh सर द्वारा

चोट कहीं और दर्द कहीं.....

(स्केच नंबर १)

ऐ तेज हवाओं!
माना तेरी तो यह फितरत ही है
कि एक सूखे पत्ते को उड़ा देना और पटकना!
मगर अपने इस खिलंदड़ेपन में
बस इतनी सी इंसानियत और जज्बात रखना कि
इस सूखे पत्ते के हालात को देखकर
उस टहनी की आह और ऑसू तो न निकलें!
जिसका यह कभी हिस्सा, लाडला और दुलारा हुआ करता था!

फोटोग्राफ - श्री दिनेश कुमार सिंह द्वारा

चांद की राह, कुछ फूलों की कुछ खारों की!

चांद की राह, कुछ फूलों की कुछ खारों की!
(स्केच न. २)

कितना उदास सा होता है,
चांद का यह अकेला सफर!
सब कुछ सोया हुआ,
खामोश गुमनामी में खोया हुआ!
क्या आसमान क्या धरती
क्या पेड़ और क्या पक्षी
क्या नदियां क्या पहाड़
क्या मैदान और क्या बीहड़
मगर चांद जागता है, रात भर चलता है
क्या ठंडी, क्या गर्मी यात्रा पूरी करता है
चाहे अमावस का हो अंधेरा या पूनम का उजाला,
मंदिर का सोया शिखर, या रास्ते में जागती मधुशाला
कभी आहट से, कभी सरपट से
चलता है, कभी इस क्षितिज से कभी उस क्षितिज से
कभी सागर के इस पार, कभी उस पार
रास्ते में क्या फूल और क्या खार
कहता है अपनी खामोशी में, चलने का संकल्प है
क्या फर्क यह कि निर्धारित यह यात्रा दीर्घ या अल्प है।
-देवेंद्र

फोटो - श्री Dinesh Kumar Singh द्वारा

आंवले का पेड़

(स्केच नंबर ८)

बचपन में, यदा कदा दीवाली की लंबी छुट्टी में, 

मैं मां के संग अपनी नानी के घर जब जाया करता, 

तो दीवाली के कुछ दिनों बाद वह ले जाती थी हमको, 

गांव के पास के आंवले के बगीचे में खाने पीने का सामान सजाकर, 

यह कहते कि आज वही बगीचे में ही दिन का खाना खाना है । 


पैदल जाते रास्ते भर मैं कितने सवाल मां से, नानी से पूछा था करता, 

कहां जा रहे, क्यों जा रहे,आज भला क्यों दिन का खाना

हम सब खाते हैं खुले बगीचे में बैठे, और आंवले के पेड़ो के नीचे?


नानी धीरज रखते मुझको बतलाया करती थी,

कि कार्तिक का यह आज शुक्ल पक्ष नवमी तिथि है,

पवित्र बड़ा यह दिन, इसे आंवला नवमी भी कहते हैं, 

और आज आंवले के पेड़ों के नीचे भोजन करने से, 

पुण्य बड़ा होता है,मिटते सब दुख दारिद्य,रोग व्याधि 

और विद्या,बल, बुद्धि, स्वास्थ्य,धन सुख बढ़ता है।


नानी बतलाती आज आंवले के वृक्षों में , 

धन्वंतरि हैं प्रविष्ट स्वयं होते, इसके फलपत्तों से अमृत बांटते, 

और देववैद्य अश्विनीकुमार हवा के संग बहते उपवन में 

आंवले की छाया में दिनभर आज  स्वास्थ्य बल देते।


नानी की  बातें कुछ पल्ले पड़तीं कुछ सिर से ऊपर जातीं, 

मगर हमारे पग में जल्दी वहां पहुंचने की उमंग और गति मिल जाती।


वहां बड़ा मेला सा रहता, बड़े, युवा और ढेर से बच्चे, 

जगह जगह जलते थे चूल्हे, भोजन की तैयारी करते , 

अलग अलग सब अपनेअपने जात-पात के झुंड बनाते 

अलबत्ता बच्चे मिल खेले,नाम न जानें, ना जाति पूछते।


लकड़ी के चूल्हे पर पकाती मां नानी संग चटपट खाना, 

और हम बच्चे बड़े मजे से , चादर पर बैठे पंक्ति से 

गरम गरम पूरी तरकारी, खाते छककर और मनमाना, 

भोजन के अंत सभी चाभते खीर मिठाई दोना दोना।


भोजन को निपटाकर मां नानी बर्तन और कपड़े समेटते, 

ढलता दिन, और थकीं काम से, घर वापस की तैयारी करते, 

तब हम बच्चे  धमाचौकड़ी करते अपने खेल पुजाते,

 इधर दौड़ते, उधर दौड़ते, मुश्किल  से वापस घर को कदम बढ़ाते।


और लौटते रास्ते, बरबस मुड़ते तकते जो उपवन को , उन पेड़ों को, 

ऐसा अनुभव होता कि वह दे रहे आशीष वचन हैं हमको, 

कि बच्चे तुम चिरायु हो, खुश हो, स्वस्थ रहो, पढ़ो, बढ़ो, उन्नति हो तेरी, 

इसी तरह तुम आते रहना, तेरे जीवन में सब शुभ हो, मिलती रहेगी ममता मेरी।


आंवले के उपवन के इन आशीष वचन में 

वही वात्सल्य, प्रेम, ममता अनुभव होती थी। 

जो नानी के मेरे सिर पर हाथ फेरते हौले से, 

उसकी आंखों में मुझको ममता दिखती थी।


-देवेंद्र दत्त मिश्र


-फोटोग्राफ Shri Dinesh Kumar Singh  द्वारा



जो नीम नीम, वही है हकीम!

जो नीम नीम, वही है हकीम!

(स्केच नंबर ५)  ७ सितंबर २०१५

हरे भरे दिखते कितने तुम ,
जो समीप वह छाया पाता।
मस्त पवन संग मस्त झूमते ,
सावन तुझको अंग लगाता। १।

सावन की बहती पुरवाई ,
और ललनायें झूला झूलें।
तेरी हर डाली मचल मचल,
कजरी पचरा के गीत ढलें।२।

यूं दिखते हो सुंदर भावन ,
जब लद जाते हैं पुष्प धवल।
तव अंग अंग ऐसा सजता, कि
मां दुर्गा का फैला हो आंचल ।३।

पर तेरी हरीतिमा सुंदरता ,
है अंदर समेटे कड़वापन ।
फिर निमकौली से सजते जब,
तीक्ष्ण गंध असहज करती मन। ४।

मानव जीवन भी कुछ तेरे जैसा ,
कितने कड़वेपन और सारे गम ।
फिर भी हर अनुभव नयी सीख,
जो नीम नीम, वही है हकीम ।५।

जो बाहर से मीठा लगता,
वह अंदर से कड़वा होता ।
जो देता ऊपर दर्द बहुत ,
वह अंदर से है सुख दे जाता। ६।
#Devendra Dutta Mishra

फोटोग्राफी - श्री Dinesh Kumar Singh  द्वारा

कनेर के फूल.....

कनेर के फूल....

(स्केच नंबर - ६)

याद आ गया आज अचानक, बचपन में
गांव में घर के शिव मंदिर के पास,
हमारे स्कूल के आने-जाने के रास्ते में
खामोश खड़ा पीले कनेर फूलों का पेड़।

सुबह सजा, पीले पीले फूलों से वह लकदक था दिखता,
और मंदिर में पूजा करने को शिवभक्त कई
तोड़ रहे होते थे उन पीले फूलों को अति श्रद्धा से,
फूलों को चुन रखते फूलों की पूजा डोलची में।
वह कनेर का पेड़ दमकता दर्प लिए, मुख
खिला, विहसता, खुशी-खुशी और कुछ गुमान से, सबको बांट रहा होता था पीले ताजे फूलों को,
मानों मूल्यवान आभूषण राजा कोई दान दे रहा विप्रवरों को,
क्यों न भला मन हो उसका अति उल्लासित,
जब उसे पता कि उसके पीले पुष्प चढेंगे आदर से शिव के माथे पर।

दिन ढलते जब स्कूल से लौटते हम उसको तकते,
तो अपने पीले फूलों से खाली, वह खड़ा वही दिखता कितना निस्पृह, खाली-खाली सा,
मानों कोई नृप सारी निधि स्वयं लुटा बन गया हो संन्यासी और बैठा हो एकांत, शांत और ध्यानलीन सा।

मन उदास हो जाता था देख उसको मौन और गंभीर इस तरह,
बोझिल मन, अपने नन्हे डग भरते हम गुजरते जब शिव मंदिर से ,
मन ही मन शिवजी से यही प्रार्थना करते कि —
हे शिवजी! कनेर का पेड़ फिर हँस पाये , उसके पीले सुंदर फूल उसे वापस मिल जायें।
सोते सोते यही सोचते होते क्या फिर से  खुश हो पायेगा कनेर का पेड़ ,उसे वापस अपने पीले सुंदर फूल मिलेंगे?

और शिव जी बड़े दयालु, जैसे कि हैं जाने जाते,
वास्तव जादू हो जाता , शिवजी हर रात दया कर देते थे,
और सुबह हम जब स्कूल उसी रास्ते से जाते होते,
वह कनेर का पेड़ पुनः ताजे पीले फूलों से लकदक था दिखता,
और बांट रहा होता था फिर से उदारमन, उल्लासित चेहरे से
अंजुलि भरभर अपने पीले फूल उन्हीं शिवभक्तों को ।

ऐसा लगता वह हम बच्चों को विद्यालय आते जाते
यही सीख देता था कि—
जितना तुम बांटोगे औरों को अपनी निधियां, अपने धन
उनसे कई गुना वापस पाओगे, वे वापस आयेंगी तेरी ही झोली में।
जो स्वाभाविक गुण,सम्पदा तुमको मिलती हैं प्रकृतिदत्त,
चमत्कार, जादू होता है उनको औरों को देने में, साझा करने में।
Devendra Dutta Mishra

फोटो श्री Dinesh Kumar Singh  द्वारा